bhakti ganga
कहाँ मुक्ति का द्वार?
बढ़ता हूँ जिस ओर उधर ही तम है अगम, अपार
यों तो मेरे दाँयें-बायें
चमक रही हैं शत रेखायें
पर कैसे उन पर टिक पायें
पग, मैं निपट गँवार!
कहाँ प्रभात दिवस का पहला
जब मैं निज गृह से था निकला!
किसने इस जड़ मरू में बदला
वह स्वर्णिम संसार!
फिर भी यह श्रम व्यर्थ नहीं है
गति है यदि, गंतव्य कहीं है
जहाँ रुका मैं, क्या न वहीँ है
तू भी प्राणाधार!
कहाँ मुक्ति का द्वार?
बढ़ता हूँ जिस ओर उधर ही तम है अगम, अपार