bhakti ganga

कुछ भी मत हो, मत हो, मत हो

चिंता क्या, चपल अप्सराओ!
फेरकर नयन, चली जाओ!
मेरे सपनों में भी मत आओ
सारी अभिव्यंजना स्वगत हो

सागर के तीर पर अकेले
मैंने आवर्त बहुत झेले
मुझको भी साथ आज ले ले
फिरती रवि-रश्मि जो विरत हो

पंछी नीड़ों में, स्वर गगन में
फूल देवता के श्री-चरण में
सारे अभिलेख मिटे क्षण में
मुँदते अब नयन भक्तिनत हो

कुछ भी मत हो, मत हो, मत हो