bhakti ganga

चिंता किस-किस की करिये !

मन तो एक लाख चिंतायें, किस-किसका मुँह भरिये
तन की, धन की या जीवन की चिंता से न उबरिये

या जीवन के बाद मिलेगा जो उसके हित मरिये
शासन-भीति, सुयश-चिंता में फूँक-फूँक पग धरिये

और न कुछ तो सदा अदेखे मरण पाश से डरिये
उतनी खाली होती जाती जितनी गागर भरिये

इस चिंताकुल भाग-दौड़ में कैसे कहाँ ठहरिये !
नहीं बनेगा कुछ, कितना भी बनिये और सँवरिये

सब चिंतायें सौंप उसी को पल में पार उतरिये
चिंता किस-किस की करिये !