bhakti ganga

चिंता नहीं फूल जो गुँथकर माला में न गले तक पहुँचा
रौंदा गया द्वार पर तेरे भक्तों से, यह भी क्या कम है!

चार घड़ी के जीवन में इतना भी मान किसे मिलता है!
मंदिर तक पहुँचे, प्रसून ऐसा भी कभी-कभी खिलता है
दुनिया देखे या मत देखे, तू तो सब कुछ देख रहा है
किसमें सच्ची सुरभि बसी है, किसमें मात्र सुरभि का भ्रम है

कुछ तरुणी की अलकों में, कुछ राजसभाओं में इठलाते
हाट-बाट में कुछ बिकते, कुछ डालों पर ही कुम्हला जाते
फूलों की तो रात एक ही, बनें, जिन्हें जो भी बनना है
तेरे चरण वरण कर पाऊँ ,मेरा तो यह लक्ष्य परम है

चिंता नहीं फूल जो गुँथकर माला में न गले तक पहुँचा
रौंदा गया द्वार पर तेरे भक्तों से, यह भी क्या कम है!