bhakti ganga

झलक भी यदि न रूप की पाऊँ
कबतक रटता नाम तुम्हारा मनके गिनता जाऊँ

क्या फल, प्रभु! कृपालु भी यदि तुम
रहो छिपे प्रतिमा में गुमसुम
हँसो न तनिक, भाल पर कुमकुम

जब मैं नाथ लगाऊँ

चिर-निर्गुण भी, भक्तों के हित
सगुन बने रहते हो तुम नित
क्यों मैं ही इस सुख से वंचित

तम में चक्कर खाऊँ!

यद्यपि भावनाओं में मन की
पगध्वनि सुनता हूँ चेतन की
पर कैसे लूँ धूलि चरण की?

माला किसे पिन्हाऊँ?

झलक भी यदि न रूप की पाऊँ
कबतक रटता नाम तुम्हारा मनके गिनता जाऊँ