diya jag ko tujhse jo paya

कीर्ति की महिमा भली बखानी!
इस मृगतृष्णा में क्या-क्या ठोकरें न पड़तीं खानी!

मिले जिन्हें यश जग में रहकर
भोग सकें वे उसे घड़ी भर!
बस करके अपना हस्ताक्षर

राह धरें अनजानी

मरने पर जिनका यश छाये
उनके किसी काम वह आये!
जाकर क्या नाता रख पाये

फिर इस जग से प्राणी!

अच्छा यही, छोड़कर धुन यह
करता रहूँ सृजन नि:स्पृह रह
छल न सके वह, जिसका आग्रह

फेरे तप पर पानी

कीर्ति की महिमा भली बखानी!
इस मृगतृष्णा में क्या-क्या ठोकरें न पड़तीं खानी!