diya jag ko tujhse jo paya
परीक्षा मेरी नहीं, तुम्हारी
मैंने तो अपनी-सी की, अब नाथ! तुम्हारी बारी
अपराधी को दंड उचित है
किन्तु क्षमा फिर किसके हित है?
यदि नियमों पर ही जग स्थित है
क्षमावृत्ति क्यों धारी?
सृष्टि-विधान अकाट्य बना तुम
यदि हो चुके आप उसमें गुम
किसके हित ये अक्षत, कुंकुम
यह व्रत-पूजा सारी!
समय-समय पर विविध वेश धर
की जो तुमने कृपा निरंतर
मैंने तो उसके ही बल पर
आगे सुगति विचारी
कितना भी भटके मन भ्रम में
आस्था है यह अंतरतम में
हूँ पापी भी जीव अधम मैं
करुणा का अधिकारी
परीक्षा मेरी नहीं, तुम्हारी
मैंने तो अपनी-सी की, अब नाथ! तुम्हारी बारी