diya jag ko tujhse jo paya
मूढ़! क्यों ढूँढ़ें जग का मान!
स्वयं भारती तुम्हें दे रही जब नित नव वरदान!
देख, डूब अपने में, पागल!
कैसी अद्भुत ज्योति रही जल
क्यों झलमल करते जुगनू-दल
खींचें तेरा ध्यान!
जीवन की आपाधापी में
क्या, जो तेरे सुर में धीमे
गुणिजन आ इस काव्य-कुटी में
करें न मधुरस पान!
कभी न हो जिसका रँग फीका
तू है वह भूषण वाणी का
रत्न मोल क्या दें उस श्री का
जो रत्नों की खान
मूढ़! क्यों ढूँढ़ें जग का मान!
स्वयं भारती तुम्हें दे रही जब नित नव वरदान!