diya jag ko tujhse jo paya

मेरे अंतरवासी राम
तू ही मुझको मथुरा-काशी, तू ही चारों धाम

मैंने कुछ जप-तप न किया है
जीवन साधनहीन जिया है
तेरा ही अवलंब लिया है

जब बिगड़े हैं काम

कर अणु से अनंत तक लेखा
पा न सका तेरी पदरेखा
पर अंतर में ज्यों अनदेखा

तू है आठों याम

जब है तेरा साथ निरंतर
क्यों हो मुझको खोने का डर!
क्यों ढूँढ़ूँ तुझको भू-नभ पर

दे नित नव-नव नाम !

मेरे अंतरवासी राम
तू ही मुझको मथुरा-काशी, तू ही चारों धाम