diya jag ko tujhse jo paya

राग जो अंतर में छाया है
उसको ही शब्दों में सजकर मेरा कवि लाया है

इसमें मेरी सहज भक्ति है
प्रेम-विकलता है, विरक्ति है
पर वह कोई और शक्ति है

जिससे रस आया है

सच तो यह, उसके ही बल से
ये सुर फूटे अंतस्तल से
मुझे किन्हीं पुण्यों के फल से

उसने अपनाया है

चिंता क्या, यदि जग न सराहे!
क्या भव-विभव हृदय अब दाहे!
जिसको पा कुछ और न चाहे

मैंने वह पाया है

राग जो अंतर में छाया है
उसको ही शब्दों में सजकर मेरा कवि लाया है