diya jag ko tujhse jo paya

हाथ में तेरे है जब डोर
तब भी मैं फिर-फिर क्यों देखूँ इसकी-उसकी ओर!

क्रूर काल की हर ठोकर में
तूने दी स्थिरता अंतर में
दुख में तेरी ही सुधि कर मैं

   साहस सका बटोर

क्या न अदृश्य कृपा थी तेरी
बची भँवर से नौका मेरी!
कितनी भी थी रात अँधेरी

चला न तम का जोर!

फिर भी क्यों, जब सुरसरि आगे
मन जलकण जन-जन से माँगे!
तू चित में, फिर भी क्यों जागे

प्रभु! चिन्तानल घोर!

हाथ में तेरे है जब डोर
तब भी मैं फिर-फिर क्यों देखूँ इसकी-उसकी ओर!