diya jag ko tujhse jo paya

हे रवीन्द्रनाथ!
मैं भी चल सकूँगा अब तुम्हारे साथ-साथ

तुमने ज्यों गरल-दाह झेला
बदले में सुधा-घट उड़ेला
मैं भी तपता रहा अकेला

लिखते क्षण काँपे नहीं हाथ

आयेगी मेरी भी बारी
जग को कभी लगेगी प्यारी
काँटों की झेल व्यथा भारी

मैंने जो माला दी गाँथ

गाता प्रेम-भक्ति के स्वरों में
पाऊँगा प्रतिष्ठा अमरों में
गूँजेगी तुम-सी ही घरों में

स्वरधारा यह भी पुण्यपाथ

हे रवीन्द्रनाथ!
मैं भी चल सकूँगा अब तुम्हारे साथ-साथ