ek chandrabimb thahra huwa

मेरे आँगन में एक शिशु
अब भी पहले जैसा ही मचल रहा है,
किलकारियाँ भरता हुआ
वह मेरे आगे-आगे चल रहा है।
मेरा मन जब हजारों चेष्टायें करके भी
उसे पकड़ नहीं पाता है
तो आइना उठाकर
वह बार-बार मेरे मुँह की ओर दिखाता है;
मेरी डाँट-फटकार से
यद्यपि वह खिलाड़ी बालक कुछ सहम-सा जाता है,
उसका मस्तीभरा खेल
बीच-बीच में थोड़ा थम-सा जाता है,
पर कुछ देर बाद ही
फिर मेरा आँगन-वैसा ही महकने लगता है,
अपनी अटपटी क्रीड़ाओं में मगन वह ढीठ
फिर वैसे ही चहकने लगता है।