ek chandrabimb thahra huwa
मैं पीड़ा को ही प्रसाद समझ लूँगा
यदि देवी-प्रतिमा सी
तुम मेरी चेतना में मुस्कुराती रहो,
मैं अश्रुकणों को ही मोती मान लूँगा
यदि मेरी आँखों में बैठकर
तुम इनसे अपना हार गुँथवाती रहो,
मेरी पराजय को
तुम्हारे स्नेहांचल की छाया मिलती रहे
तो फिर मुझे विजय का उल्लास नहीं चाहिए,
मैं विरह में ही मिलन का सुख पा लूँगा
यदि सपनों के चोर-दरवाजे से
तुम सदा मेरे पास आती-जाती रहो।