geet ratnavali
रत्ना! यों न विकल कर मन को,
माँ अब कहाँ! पड़ोसिन हैं हम, आयी यहाँ भजन को
निर्मोही से आशा बाँधी
घुलकर, बहन! रह गयी आधी
क्या यदि पति ने चुप्पी साधी!
हम तो अलग न क्षण को
पूछेंगी अब चलकर काशी–
‘यही मुक्ति-पथ है, संन्यासी!
कर दें नष्ट सती सीता-सी
पत्नी के जीवन को!’
पर मन को रह तनिक सँभाले
सुना कि वे पोथी-पत्रा ले
यहीं कहीं हैं डेरा डाले
आज कथा-वाचन को
रत्ना! यों न विकल कर मन को,
माँ अब कहाँ! पड़ोसिन हैं हम, आयी यहाँ भजन को