ghazal ganga aur uski lahren

277
कंधों से हमारे तेरी बाँहों का लिपटना
मुश्किल भी हो, मुश्किल मगर ऐसा तो नहीं था !
278
कई बार यों तो आयीं तेरे बाग़ में बहारें
ये गुलाब पर कहाँ थे मेरी शायरी से पहले !
279
कई सवाल तो ऐसे भी जी में आये हैं
कि सुनके जिनको बहुत आप मुस्कुराये हैं
280
कट गयी है उम्र सारी काटते चक्कर, मगर
राह मिलती है न तेरे घर में आने के लिये
281
कटेगा इससे भी कुछ तो हवा का सन्नाटा
अकेलेपन में कोई गीत गुनगुनाते चलो
282
कठपुतली का खेल दिखाने कोई हमें लाया था यहाँ
प्यार तो बस था एक बहाना, मेरे साथी, मेरे मीत !
283
कब उन आँखों से झड़े हैं मोती
जब ये आँचल ही तार-तार है आज
284
कब भला इस बाग़ की हद से निकल पाये गुलाब !
आप तक आये हैं चलकर, होके रुख़सत आपसे
285
कब सुबह होगी, कब खिलेंगे गुलाब
दिल तड़पता है उस घड़ी के लिये
286
क़बूल कैसे हो, चढ़ती है जहाँ सर की भेंट
मैंने की है महज़ लफ़्ज़ों की अदाकारी, नज़र
287
कभी अपने हाथों सँवारा था तुमने
गुलाब आज तक वैसे खिल ही न पाये
288
कभी आँखों ही आँखों बात कुछ हमसे भी होती थी
कभी हम भी तुम्हें भाये, हमें भी याद कर लेना
289
कभी इसका मतलब भी तुम पर खुलेगा
अभी तो हरेक बात आयी-गयी है
290
कभी इसको मुँह तक भरें तो सही
ये प्याला बहुत बार लाये हैं हम
291
कभी किसीसे जो लग जाय तो छूटे ही नहीं
नज़र का खेल है यह तो कभी-कभी बन जाय
292
कभी कोई मंज़िल भी मिलकर रहेगी
बढ़ाता चल, ऐ दिल ! क़दम धीरे-धीरे
293
कभी ख़ुशबू से ये दिल उनका भी छू लेंगे, गुलाब !
रंग तूने जो पसारे हैं नज़र के आगे
294
कभी गाने को कहते ही, लजाकर सर झुका लेना
‘गुलाब’ अब भी किसीकी आनाकानी याद आती है
295
कभी गुलाब को देखा न उस तरह से खिला
भले ही बाग़ में रस की फुहार होती रही
296
कभी जो उनकी एक झलक, नज़र से थी गयी छलक
उसीकी धुन में आज-तक फिरे हैं हम जहाँ-तहाँ
297
कभी जो मिलें फिर तो पहचान लेना
नहीं तुमसे हम आज भी हैं पराये
298
कभी जो याद आये, पूछ लेना
लिये मुट्ठी में दिल, अब भी वहीं हूँ !
299
कभी तड़पा ही देगी प्यार की ख़ुशबू, ‘गुलाब’ ! उसको
कोई भी आह तेरे दिल की बेमानी नहीं जाती
300
कभी तुम हुए भी जो सामने, वो नज़र मिली न गले-गले
ये कसक, ये दर्द, ये तड़पनें, ये जलन है उसकी गुलाब में
301
कभी तो आपकी मुस्कान देख लें हम भी
हमारे बीच का परदा कभी उठे तो सही
302
कभी तो आपकी हम पर रही दया की नज़र !
कभी तो प्यार की क्यारी में सौ गुलाब खिले !
303
कभी तो उनको लुभा लेंगी तड़पनें इसकी
ये दिल का साज़ जहाँ तक बजे, बजाते चलो
304
कभी तो उससे बहार आयेगी सहरा में भी
हमने की है जो यहाँ प्यार के रँग की बरखा
305
कभी तो तुमको भी रुचता था बोलना हमसे
कभी तो हम भी तुम्हें भाये, और कुछ मत हो
306
कभी तो पहुँचेंगी तेरे दिल तक हवा में उड़ती हुई ये तानें
हम अपनी दीवानगी का आलम छिपाके ग़ज़लों में रख रहे हैं
307
कभी तो पायेंगे काग़ज़ गुलाब की रंगत
हम अपने ख़ून से रँगते रहे हैं सारी रात
308
कभी तो पास चले आओ कि देखें हम भी
नज़र में अब भी वो पहला सवाल है कि नहीं
309
कभी तो फिर भी अकेले में मिल ही जाओगे
भले ही आज है मेले में साथ छूट गया
310
कभी तो यह न हुआ आके दो घड़ी मिल जायँ
पता ही पूछते रहते हैं आप, क्या कहिये !
311
कभी तो सेज पे दुलहन के, कभी मरघट में
गुलाब ! तुमने भी क्या ज़िंदगी गुज़ारी है !
312
कभी तो हँसके, कभी तिलमिलाके भी हमने
क़दम को उनके क़दम से मिलाके रक्खा है
313
कभी दिन जो लौट न आयेंगे, मेरे दिल से निकल न पायेंगे
जो न मिट सके ये वो दर्द है, जो न बुझ सके ये वो प्यास है
314
कभी दी जो तुलसी-कबीर को, वही आब दे तू ‘गुलाब’ को
कि नज़ीर हो जो ग़ज़ल कहूँ, कि क़बूल हो जो दुआ कहूँ
315
कभी दो क़दम, कभी दस क़दम, कभी सौ क़दम भी निकल सके
मेरे साथ उठके चले तो वे, मेरे साथ-साथ न चल सके
316
कभी धड़कनों में है दिल की तू, कभी इस जहान से दूर है
ये कमाल है तेरे हुस्न का कि नज़र का मेरी फ़ितूर है !
317
कभी पहले भी था ये भरम हुआ कि मुझे है उसने भुला दिया
मेरे कान में आ रही है सदा, ‘ये अदा वही मेरी ख़ास है’
318
कभी पास आ रही है, कभी दूर जा रही है
ये नज़र है प्यार की जो मुझे आजमा रही है
319
कभी पूछ भी लो कि क्या चाहता हूँ
तुम्हें चाहने की सज़ा चाहता हूँ
320
कभी प्यार से मुस्कुराओ तो क्या है !
हमें भी जो अपना बनाओ तो क्या है !
321
कभी बहार के पाँवों की तो आहट न मिली
भले ही मन की ख़ुमारी में सौ गुलाब खिले
322
कभी बहार में मिलते गुलाब से जो आप
तो उनकी आज कहानी ही दूसरी होती
323
कभी बाग़ में खिलेंगे जो गुलाब भी हज़ारों
ये महक कहाँ मिलेगी जो ग़ज़ल में छा रही है !
324
कभी बेसुधी में रुके नहीं, कभी भीड़ देखके डर गये
तेरा प्यार दिल में लिये भी हम, तेरे सामने से गुज़र गये
325
कभी वे मेरी, कभी अपनी तरफ़ देखते हैं
कभी तो तीर है दिल में, कभी कमान में है
326
कभी सर झुकाके चले गये, कभी मुँह फिराके चले गये
मेरा साथ कोई न दे सका, सभी आये, आके चले गये
327
कभी, हमसफ़र ! यहाँ हम न हों, तेरी चितवनें भी ये नम न हों
ये अदायें प्यार की कम न हों, कभी हम भी जिनमें सँवर गये
328
कभी हमसे खुलो जाने के पहले
मिलें आँखें तो शरमाने के पहले
329
कभी होंठों पे दिल की बेबसी लायी नहीं जाती
कुछ ऐसी बात है जो कहके बतलायी नहीं जाती
330
करेगा कौन उन्हें प्यार अब हमारी तरह !
न चाँद फिर कभी निकलेगा चाँदनी के लिये
331
करोगे याद भी हमको हमारे बाद कभी
अभी तो छोड़के जाते हो मुँह फिराये हुए
332
कर्ज साँसों का तो दिया उसने
पाई-पाई हिसाब की, ले ली
333
कल भूल से हमने डाल में से एक फूल गुलाब का तोड़ लिया
सुनते हैं, इसी एक बात पे कल, वह डाल बहुत बदनाम हुई
334
क़सूर कुछ तेरे हाथों का भी तो है, फ़नकार !
करें भी क्या जो ये तस्वीर दिल को भा ही गयी !
335
क़सूर है मेरे देखने का, कि है तेरा आईना ही झूठा
कभी जो तू था तो मैं नहीं था, अभी जो मैं हूँ तो तू नहीं है
336
कसो तो ऐसे कि जीवन के तार टूट न जायँ
पड़े जो चोट कहीं पर तो रागिनी ही ढले
337
कहते रहे हैं दिल की कहानी सभी से हम
दुख एक का कहने से दूसरे को हुआ कम
338
कहते हैं जिसको प्यार, है मजबूरियों का नाम
क्यों हो नज़र से दूर अगर दिल के पास हो
339
कहते हैं देखकर वे तड़पना गुलाब का–
‘इसमें कोई क़सूर हमारा तो नहीं है’
340
कहते हैं लोग –‘आपके दिल में है हमसे प्यार’
हम भी तो देखते कभी तड़पें जनाब की
341
कहते हैं वे कि बाग़ में पतझड़ है अब, गुलाब !
हम तुमको ‘अलविदा’ न कहें, और क्या कहें !
342
कहते हैं वे– ‘गुलाब में रंगत तो है ज़रूर
अपनी है जो औक़ात, मगर भूल रहे हैं ’
343
कहते हो जिसको प्यार, ख़ुमारी थी नींद की
सपना चुराके लाये थे कोई, कहीं से हम
344
कहनी है कोई बात मगर भूल रहे हैं
है और भी सौग़ात, मगर भूल्र रहे हैं
345
कहने की ताब थी न पर, शह उनकी पाके कह गये
जीने की बेबसी को हम सुर में सजाके कह गये
346
कहने को तो वे हमपे मेहरबान बहुत हैं
फिर भी हमारे हाल से अनजान बहुत हैं
347
कहने को तो हमें भी किया याद आपने
अच्छा था भूलना ही मगर इस निबाह से
348
कहने को यों तो और भी कह देते कुछ गुलाब
हैं होंठ मगर आज तो उनके सिले हुए
349
कहने से बेवफ़ा तो बुरा मानते हो तुम
अब तुमको बेवफ़ा न कहें और क्या कहें !
350
‘कहा क्या !’, ‘कल कहूँगा क्या !’, ‘न यह कहता तो क्या कहता !’
यही सब सोचते रातें बितानी याद आती है
351
कहा कि अब न सहेंगे, तो हँसके बोल उठे–
‘सही है, ख़ूब है, सहते हैं आप, क्या कहिए !’
352
कहा गुलाब से मिलने को तो हँसकर बोले–
‘आख़िरी रात हो यह उसकी, ज़रूरी तो नहीं’
353
कहाँ आ गये चलके हम धीरे-धीरे
कि रुकने लगे हैं क़दम धीरे-धीरे
354
कहाँ उनकी महफ़िल, कहाँ मेरी चर्चा !
ये बेपर की किसकी उड़ायी हुई है
355
कहाँ एक दीवाना था जो शहर में !
हुई उसकी चर्चा भी कम धीरे-धीरे
356
कहाँ जुड़ी थी सभायें ? कहाँ थे उनसे मिले ?
कहाँ था अपना बसेरा ? कहीं भी कोई नहीं
357
कहाँ पे हमको उमीदों ने लाके छोड़ दिया
अँधेरी रात में दीपक जलाके छोड़ दिया
358
कहाँ मीर-ग़ालिब की ग़ज़लें, कहाँ मैं !
बनाने से थोड़ी हवा बन गयी है
359
कहाँ से आती ये रंगत तुम्हारी सूरत पर
नहीं किसीकी जो आँखों में रह चुकी होती
360
कहाँ से ग़ज़ल प्यार की यह उतरती
जो हम उन निगाहों के मारे न होते !
361
कहाँ से पायी यह ख़ुशबू, ये रंगतें इतनी !
गुलाब ! रहके भी काँटों में तू खिला ही रहा
362
कहाँ से ये प्यार आया आँखों के अंदर !
न हमने बुलाया, न तुमने बुलाया
363
कहाँ से लौ उतर आयी है, इसको मत पूछो
तुम्हें तो बस कि दिये से दिया जलाते चलो
364
कहाँ है काग़ज़ में रंगों-बू वह क़लम की जादूगरी तुम्हारी !
गुलाब ! तुमने कहा था हरदम– ‘छिपाके ग़ज़लों में रख रहे हैं’
365
कहाँ है प्यार की क़सम ! कहाँ हो तुम, कहाँ हैं हम !
ढलान पर क़दम-क़दम, उतर रहा है कारवाँ
366
कहाँ है रोशनी तारों की, चाँद, सूरज की !
अँधेरा और अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं
367
कहाँ है रंगों की शोख़ियाँ वे ! कहाँ हैं अब वे बहार के दिन !
गुलाब ! तुम बाग़ भर में बस एक हवा रहे थे, पता नहीं था
368
कहिए तो उनकी हूबहू तस्वीर बना दें
यह सच है, हमने आँख से देखा तो नहीं है
369
कहिए तो कुछ कि काट लें दो दिन ख़ुशी से हम
घबरा गये हैं आपकी इस बेरुख़ी से हम
370
कहीं ऐसा न हो, सुनें जब आप
कहनेवाला हो चुप कहानी का !
371
कहीं कुछ नहीं तू अगर नहीं, तुझे देखे बस वो नज़र नहीं
तू छिपा है होके भी हर कहीं, तेरे घर का कैसे पता कहूँ !
372
कहीं चोट सीने में गहरी लगी है
हम आज उनकी आँखें भी नम देखते हैं
373
कहीं दो-एक खिल भी जायँ, तो क्या !
गुलाब ! अब आपका मौसम नहीं है
374
कहीं पड़ाव के पहले ही नींद घेर न ले
कुछ और तेज़ सुरों में क़दम बढ़ाते चलो
375
कहें क्या तुम्हें ! ज़िंदगी देनेवाले !
कि जी से गुज़रने को जी चाहता है
376
कहें जो ‘हाँ’ तो नहीं है ‘हाँ’ भी, ‘नहीं’ कहें तो ‘नहीं’ नहीं है
भले ही आँखों से हैं वे ओझल, खनक तो पायल की हर कहीं है
377
कहें भी क्या जो वही पूछ रहे हैं हमसे !
‘ये ग़म हैं क्या जो तेरा दिल जलाये जाते हैं ?’
378
कहो प्यार से, छिपके सपनों में आये
अभी रूप को नींद आयी हुई है
379
कहो ये उनसे, तड़पते बहुत गुलाब हैं आज
उन्हें बहार ने काँटों पे लाके रक्खा है
380
काँटों का ताज कौन पहनता है यह, गुलाब !
माना कि खेल प्यार के आसान बहुत हैं
381
काँटों की चुभन में भी हरदम देखा है गुलाब को हँसते ही
सोचा भी कभी, किस हाल में वे दिन अपने गुजारा करते हैं !
382
काँटों में दिल हमारा तड़पता है ज्यों गुलाब
क्या दुश्मनी थी आपको इस बेगुनाह से !
383
काँटों में रखके पूछ रहे हो गुलाब से ! —
‘कोई तुम्हारे जीने की सूरत भी हुई है !’
384
काँटों से तार-तार था सीना गुलाब का
फिर भी मिलाके रंग महावर में जी गये
385
काँटों से यों न जाइए आँचल छुड़ाके आप
रुकिए, कि एक गुलाब भी उनमें छिपा न हो
386
काँटोंभरे गुलाब को, कोई बड़ा बताये क्यों !
माना कि बात वह भी कुछ, ख़ुशबू उड़ाके कह गये
387
क्या-क्या न लेके आये ग़ज़ल में सवाल हम !
सबका जवाब उसने दिया एक ‘वाह’ में
388
क्या कद्र तेरी ज़र्द पँखुरियों की हो, गुलाब !
ख़ुशबू तो लुट चुकी है किसी ऐशगाह में
389
क्या करें जो दिल को तुम्हीं एक भा गये
यों तो थे सजाये हुए और सौ गुलाब !
390
क्या करें, दिल किसी पे जो आ जाय !
जानते हम भी, ये भरम क्या हैं
391
क्या कहा—‘अब तो कोई ग़म न होगा !’
हाँ, जो पहले था एक भरम, न होगा
392
क्या किससे पूछिए कि जहाँ मुँह सिये हों लोग !
हैं नाम के ही शहर ये, वीरान बहुत हैं
393
क्या कीजिएगा जानके दीवानगी का राज़ !
राही से मेल-जोल भी अच्छा है यहीं तक
394
क्या छिपी है अब हमारे दिल की हालत आपसे !
कुछ तो ऐसा हो कि हो मिलने की सूरत आपसे
395
क्या ज़िंदगी को दीजिए, क्या-क्या न दीजिए !
सामान मौत का ही इसे ला न दीजिए !
396
क्या तू न ख़ुद को भी था दिखाने को बेक़रार !
तब क्यों है यह ख़याल, ‘कोई देखता न हो’ !
397
क्या दिखी है कोई नेमत बड़ी इस दिल से भी
हमको यों छोड़के जाते हो जहाँ, कौन कहे !
398
क्या नहीं हाथ में उनके है, पर हमारे लिये
दिल में हलकी-सी हरारत के सिवा कुछ भी नहीं
399
क्या पता, फिर कभी हम मिल भी सकेंगे कि नहीं !
आज की रात तो आँखों में गुज़र जाने दो
400
क्या प्यार को समझें हम, क्या रूप को देखें हम
एक जान हमारी है, एक जान से प्यारा है
401
क्या बने हमसे भला काग़ज़ की तलवारों से आज !
दिल तड़पता है बहुत दुनिया तेरे वारों से आज
402
क्या हमसे छिपी रहती जो बात थी उस दिल में
परदा तो मगर अपनी आँखों से हटा होता !
403
क्या हुआ, अब जो इधर रुख़ नहीं करता है कोई
चाह है तो मिलेगी बंदगी की राह बहुत
404
क्या हुआ, आ गया हल्का-सा जो रंग आँखों में !
आपको हमसे शिक़ायत कभी ऐसी तो न थी !
403
क्या हुआ छू गयी जो लट उनकी !
हम ज़रा छाँव पाके बैठ गये
406
क्या हुआ फूल जो होंठों से चुन लिये दो-चार !
और ख़ुशबू तेरी ताज़ा ही छोड़ दी हमने
407
क्या हुआ मिल गये अगर हम-तुम !
आदमी, आदमी से मिलता है !
408
क्या हुआ, ज़िंदगी में हमने भी
नींद थोड़ी जो ख़्वाब की ले ली !
409
काम अपना है उनको पहुँचाना
ख़त सभी दूसरों के नाम के हैं
410
कारवाँ उम्र का गुज़र भी गया
रह गये बैठे हम किसीके लिये
411
कारवाँ गुज़रे बहारों के भी सज-धजकर, ‘गुलाब’ !
तुम हमेशा बाँधते ही अपना बिस्तर रह गये
412
कारवाँ यों तो हज़ारों ही जा रहे हर रोज़
दूर मंज़िल हुई जाती है हर क़दम के साथ
413
कितना भी प्यार से कोई देखे गुलाब को
अब अपनी रंगों-बू का है उसको भरम नहीं
414
कितनी भी दूर जाके बसे हों निगाह से
वे पास ही मिले हैं मगर दिल की राह से
415
कितने दिये बुझाये होंगे
तब साजन घर आये होंगे
416
किनारों पर किनारे आ रहे हैं
मुझे अब डूबने का ग़म नहीं है
417
किया है प्यार बिना देखे, भले ही उनसे
हम उस गली में न जायेंगे बेबुलाये हुए
418
किरन-किरन में मधुर बाँसुरी बजाते चलो
कली-कली के कलेजे को गुदगुदाते चलो
419
किश्ती भँवर में छोड़ दें, डाँड़ों को तोड़ दें
तेवर, ऐ ज़िंदगी ! तेरे सहते नहीं हैं हम
420
किस अदा से वो मेरे दिल में उतर जाता है !
जीतकर जैसे जुआरी कोई घर आता है
421
किस तरह उनको मना पायें गुलाब
जिनको ख़ुशबू से शिक़ायत रह गयी
422
किसने अपनी लटें खोल दीं
चाँदनी पड़ गयी स्याह है !
423
किसी बेरहम के सताये हुए हैं
बड़ी चोट सीने पे खाये हुए हैं
424
किसी भी काम न आये, ‘गुलाब’ ! तुम, लेकिन
समझनेवाले तुम्हींको बड़ा समझते हैं
425
किसी मोड़ पर ज़िंदगी आ गयी थी
बढ़ा कारवाँ और हम रुक न पाये
426
किसीका प्यार समझें, दिल्लगी समझें, अदा समझें
बतादे तू ही अब, ऐ ज़िंदगी ! हम तुझको क्या समझें
427
किसीकी तड़प, बेबसी, कुछ न पूछो
भुला भी चुका है, भुला भी न पाया
428
किसीकी याद कसकती रहेगी दिल में सदा
ये चार दिन की भले ज़िंदगी रहे न रहे
429
किसीकी शबनमी आँखों में झिलमिलाये हुए
एक अरसा हो गया फूलों की चोट खाये हुए
430
किसीके प्यार में मरने को हम मरे तो सही
हमारी मौत से दुनिया मगर जिये तो सही
431
किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई !
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
432
किसीने अपनी उँगलियों से छू दिया है ‘गुलाब’
नहीं पता भी मुझे अब कि क्या रहा हूँ मैं
433
किसीने गाया, किसीने पढ़ा, किसीने सुना
वाह, क्या ख़ूब थी इस दिल के तड़पने की अदा !
434
किसीने देखा, किसीने सुना, किसीने कहा
हमारा जान से जाना भी रंग लाके रहा
435
किसीने हँसी में न कुछ कह दिया हो !
इधर आजकल उनको कम देखते हैं
436
कुछ इस तरह थी नज़र, रात, हमारी बेताब
उनसे छिपते न बना, सामने आया न गया
437
कुछ इस बहाने ही आयी तो रोशनी घर में
गले लगाके बिजलियों को मुस्कुराते चलो
438
कुछ उन्हें मेरा ध्यान हो भी तो !
आये जो दिल में ठान, हो भी तो !
439
कुछ ऐसी ही थी बेबसी, माफ़ कर दो
हुई चूक कोई अगर चलते-चलते
440
कुछ ऐसे साज़ को हमने बजाके छोड़ दिया
सुरों को और सुरीला बनाके छोड़ दिया
441
कुछ और चाँद के ढलते सँवर गयी है रात
हमारे प्यार की ख़ुशबू से भर गयी है रात
442
कुछ और भी है उन आँखों की बेज़बानी में
चमक रहे हैं सितारे नदी के पानी में
443
कुछ और होंगी लाल पँखुरियाँ गुलाब की
काँटों से ज़िंदगी को सजाने चले हैं हम
444
कुछ कहीं भी न हुआ मैं तो क्या हुआ इससे !
और क्या होता एक क्षण में, जो हुआ सो ठीक
445
कुछ कहे कोई, हमें लौटके आना है यहाँ
दिल ये कहता है, मुलाक़ात अभी आधी है
446
कुछ जगह दिल में उनके पा ही गयी
मैं नहीं तो मेरी कथा ही गयी
447
कुछ तो आगे इस गली के मोड़ पर आने को है
डर न, ऐ दिल ! आज कोई हमसफ़र आने को है
448
कुछ तो इस दिल ने कह दिया था उन्हें
कल सितारों की नर्म छाँहों में
449
कुछ तो कहता है कोई आँखों-ही-आँखों में, मगर
बात-की-बात में वह राज़ बदल जाता है
450
कुछ तो कहती हैं तेरी ख़ामोशियाँ
जब नज़र मिलती है, शरमाती भी है
451
कुछ तो चढ़ा था पहले से हम पर नशा, मगर
कुछ आपका भी सामने आना सितम हुआ
452
कुछ तो चुप्पी में भी कह जाता हूँ
उनकी आँखों में कान हो भी तो !
453
कुछ तो छलके तेरे प्याले में भरी है जो शराब
कुछ तो इस दर्दभरे दिल को क़रार आ जाये
454
कुछ तो ज़रूर है तेरी बेगानगी का राज़
बेबस हो तू भले ही मगर बेरहम नहीं
455
कुछ तो नज़र का उनकी भी इसमें क़सूर था
देखा जिसे भी, प्यार का उसको वहम हुआ
456
कुछ तो प्याले में था ज़हर के सिवा
ज़िंदगी पीके मुस्कुरायी क्यों !
457
कुछ तो मजबूर किया उनकी अदाओं ने हमें
और कुछ अपनी निगाहों की भी मजबूरी थी
458
कुछ तो मतलब भी समझाइये
ख़त्म होने को आयी किताब
459
कुछ तो मिलता है हर नज़र में, मगर
दिल का मिलना क़दम-क़दम न होगा
460
कुछ तो रहेगा दिल में कसकता हुआ ज़रूर
माना कि मेरी याद न आयेगी मेरे बाद
461
कुछ तो सता रहा है ज़माने का ग़म हमें
कुछ आपकी ख़ामोश निगाहों का असर है
462
कुछ तो सुंदर था रूप पहले से
और कुछ हम सँवार बैठे हैं
463
कुछ तो है और भी इन ख़ाक के पुतलों में ज़रूर
होके जुगनू भी सितारों से बात करते हैं
464
कुछ तो है तेरी आँखों में प्यार
और कुछ है हमारा भरम
465
कुछ तो है बेबसी कि न आती है मौत भी
मछली तड़प रही है मछेरे के जाल में
466
कुछ न रिश्ता था उनसे, मगर
गाँठ-सी बीच दो के रही !
467
कुछ बात है कि आपको आया है आज प्यार
देखा नहीं था ज्वार यों मोती के आब में
468
कुछ बुलबुलों ने लूट लिया, कुछ बहार ने
बाक़ी जो है गुलाब वो दुनिया की नज़र है
469
कुछ भी कहिए न आप फूलों को
ये घड़ी-दो-घड़ी ठहरते हैं
470
कुछ भी जाना तो हमने ये जाना, रात है एक ही बस हमारी
जो मिले प्यार के आज साथी, उनसे मिलना दुबारा नहीं है
471
कुछ भी नहीं, जो हमसे छिपाते हो, ये क्या है !
मिलकर भी निगाहें न मिलाते हो, ये क्या है !
472
कुछ मैं भी अपने-आप को धीरज सिखा रहा
कुछ आप भी तो ख़ुद को तड़पना सिखाइए
473
कुछ हम भी लिख गये हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में
474
कैसा दुश्मन कि सर काट ले
और प्यारा भी लगता रहे !
475
कैसे अजनबी बने हमसे पूछते हैं वे —
‘अब भी तेरी तड़पनें कम न हों तो क्या करें !’
476
कैसे दिल चीरकर दिखायें ‘गुलाब’
प्यार पर पहरेदार बैठे हैं
477
कैसे फिर से शुरू करें इसको !
ज़िंदगी है, कोई किताब नहीं
478
कैसे बतायें आपको पीना है क्या बला !
प्यासे ही रहके हम तो समंदर में जी गये
479
क्यों किया वादा नहीं था लौटकर आना अगर !
इस गली के मोड़ पर हम ज़िंदगी भर रह गये
480
क्यों दिये पाँव उसके कूचे में
नाज़ उठाने की थी जो ताब नहीं
481
क्यों दौड़ती रही हैं निगाहें उसी तरफ़
दिल के नहीं जो तार भी कुछ हों मिले हुए !
482
क्यों फूल रहा आप ही अपने में तू, गुलाब !
जब तेरा यह कमाल कोई देखता न हो
483
क्यों फेर दी हैं उसने पँखुरियाँ गुलाब की
है इनमें दोस्ती मेरी, कुछ और नहीं है
484
क्योंकर रहे बहार के जाने का ग़म हमें
कोयल की तड़प में भी अगर यह मिठास हो !
485
कोई आँखें मिलाता नहीं
आ गये हम कहाँ दिनढले !
486
कोई आया था लटें खोले हुए पिछली रात
आख़िरी वक़्त ये तक़दीर बदलती देखी
487
कोई आये, न आये, नाव को हम
है जिधर तेज़ धार, करते हैं
488
कोई आयेगा तड़के, ‘गुलाब’ !
दिल से कह दो कि जगता रहे
489
कोई आयेगा शायद आज की रात
तड़प कुछ शाम ही से बढ़ गयी है
490
कोई ऊँची अटारी पे बैठा रहा, हाय ! हमने उसे क्यों पुकारा नहीं !
झुकके आँचल में जिसने समेटा हमें ज्योंही तूफ़ान ने सर उभारा नहीं
491
कोई ऐसी भी सूरत थी एक
जिसपे नज़रें हमेशा गयीं
492
कोई ऐसे में जाता, भला !
बदलियाँ सामने छा गयीं
493
कोई कुछ भी कहे, हमने तो यही देखा है
ख़्वाब ही ख़्वाब ये सारे हैं नज़र के आगे
494
कोई क्यों लगाता है फेरे यहाँ के
कभी यह ख़याल उसको आता तो होगा !
495
कोई कोयल न तुझे ढूँढ़ती फिरती हो, ‘गुलाब’ !
आज आमों पे नया बौर नज़र आता है
496
कोई गुत्थी कभी जीवन की न सुलझी हमसे
दो घड़ी आपकी अलकों को सँवारा भी नहीं
497
कोई छींटा कभी उड़ता हुआ आया भी तो क्या !
झमझमाती हुई बरसात हमारी कब थी !
498
कोई छेड़े हमें किस लिये !
हम तो मरने की धुन में जिये
499
कोई जान अपनी लुटा गया तेरी चितवनों के जवाब में
उसे गंध प्यार की ले उड़ी, नहीं और क्या था गुलाब में !
500
कोई जैसे मुझे अब दूर से आवाज़ देता है
बुलाती हैं ‘गुलाब’, आँखों की वे अमराइयाँ किसकी !
501
कोई जो सामने आता है मुस्कुराता हुआ
हम अपने मन का उसे आईना समझते हैं
502
कोई तो ऐसा भी होगा जो फिर से देगा छेड़
जहाँ से साज़ को हमने बजाके रक्खा है !
503
कोई तो और भी ज़िंदगी में था, साथ रहा हरदम जो हमारे
जब भी उठायी आँख तो देखी, हमने उसीकी प्यार की चितवन
504
कोई तो और भी महफ़िल वहाँ सजी होगी
उठाके चाँद-सितारे जिधर गयी है रात !
505
कोई तो किरन एक आशा की फूटे
अँधेरे बहुत सर उठाये हुए हैं
506
कोई तो छिपके सितारों से देखता है हमें
खुली हुई हैं अँधेरे में खिड़कियाँ कैसी !
507
कोई था जब नहीं था कोई
हमने मुड़कर पुकारा नहीं
508
कोई दिल के क़रीब आता क्यों
दोस्ती दोस्ती रही होती !
509
कोई दिल में आकर चला जा रहा है
निगाहें मिलाकर चला जा रहा है
510
कोई देखकर है निगाहें चुरा रहा
आज है पराये हुए और सौ गुलाब
511
कोई न अगर दिल के परदे में छिपा होता
यो किसने ख़यालों को रंगीन किया होता !
512
कोई पहचाना हुआ चेहरा नहीं है भीड़ में
अब हमें भी अपने घर को लौट जाना चाहिए
513
कोई पहुँची नहीं किनारे तक
प्यार की हर लहर डुबा ही गयी
514
कोई भले ही बढ़के गले से लगा न हो
मुमकिन नहीं कि उसको हमारा पता न हो
515
कोई मंज़िल नयी हरदम है नज़र के आगे
एक दीवार खड़ी ही रही सर के आगे
516
कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको
यों तो दुनिया की निगाहों में हम रहे नाक़ाम
517
कोई मन में बीन यादों की लिये
सुर बदलता ही रहेगा रात भर
518
कोई मिल जाता बहाना गले लगाने का
यों तो ख़ुशबू तेरी हर साँस में लहराती है
519
कोई मिलता नहीं हो तुझसे, ‘गुलाब’ !
फिर भी अनजान नहीं रहता है
520
कोई मुझको ऐसी दुआ न दे, कोई मुझको ऐसी सज़ा न दे
ये गुलाब कैसे खिला रहे, जो बिछुड़के उससे उदास है !
521
कोई मुझसे आके पूछे तेरे प्यार की कसक को
कोई तीर ऐसा होता, मेरे दिल के पार होता !
522
कोई यह भी तो कहो, इसका नशा कैसा है
यह जो प्याली बढ़ी आती है हर क़दम के साथ
523
कोई, यों लगता है, हरदम चल रहा
मेरे सर पर प्यार की छाया किये
524
कोई रोने के सिवा काम भी है !
मेरी हर सुबह, मेरी शाम भी है
525
कोई साथी भी नहीं, कोई सहारा भी नहीं
हम वहाँ हैं कि जहाँ प्यार हमारा भी नहीं
526
कोई सीने से लगा चलते वक़्त
रात ढलने लगी तो चाँद आया
527
कोई सूरत हो या हो वीरानी
दिल किसी बात पर अमल तो करे
528
कोई हमींसे आँख चुराये तो क्या करें !
पर्वत को तिल की ओट छिपाये तो क्या करें !
529
कोई हमें सताये, सताता ही जाये तो
हम क्या करें जो मौत भी आकर न आये तो !
530
कोई हर साँस में आवाज़ देता —
‘यहीं हूँ मैं, यहीं हूँ मैं, यहीं हूँ’
531
कोई है दृश्य, कोई द्रष्टा है
और परदा उठा रहा है कोई
532
कोयलें गायेंगी डालों पर, गुलाब
हाथ मलता ही रहेगा रात भर
533
कौन कहता है, तुझे प्यार नहीं है हमसे !
क्यों ये रह-रहके इशारे हैं नज़र के आगे !
534
कौन जाने उस तरफ़ कोई किनारा हो, न हो !
मिल भी जाओ आज, कल मिलना हमारा हो, न हो
535
कौन जाने कि अगले क़दम पर तुझे, उनके आँचल की ठंडी हवा भी मिले !
ठेस गहरी लगी आज दिल में, मगर हारकर बैठ जाना नहीं चाहिए
536
कौन जाये छोड़कर अब दर तेरा !
हमने यह माना कि मंज़िल और है
537
कौन पत्तों में देखे, गुलाब !
लाख तुम बन-सँवरके रहे
538
कौन रखता है यहाँ प्यार के वादों का हिसाब !
आप नाहक़ हैं परेशान, कोई बात भी हो !
539
कौन समझेगा दिल की बेताबी
ख़ून आँखों से जब न बहता है !
540
कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब
उम्र भर याद न आयी जिसे घर जाने की !
541
कौन होता है बुरे वक़्त में साथी किसका !
आईना भी ये दग़ाबाज़ बदल जाता है
542
खड़ी थी नींव ही आँसू की धार पर जिनकी
महल वे काँच के ढहते हैं आप, क्या कहिए !
543
खड़ी है कब से निगाहें झुकाये यह दुलहन
कभी तो दिल की कोई बात ज़िंदगी से कहो
544
खड़ी है प्यार की दुनिया नज़र बिछाये हुए
गुलाब आपके होंठों पे कुछ खिले तो सही !
545
खड़े हुए थे अँधेरे तो दोनों ओर, मगर
किरन-किरन की सवारी में सौ गुलाब खिले
546
ख़त्म उन पर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की
जिनको सूझी है सलीबों पे चढ़के गाने की
547
ख़त्म रंगों से भरी रात हुई जाती है
ज़िंदगी भोर की बारात हुई जाती है
548
खनक कुछ कम भी हो तो कम नहीं है
ये मन का राग है, सरगम नहीं है
549
ख़बर किसे है, हवाओं के मन में क्या है, गुलाब !
छिपा बहार की छाँहों में कोई और भी है
550
ख़यालों में उनके समाये हैं हम
भले ही नज़र में पराये हैं हम
551
ख़्वाब कहते हैं लोग दुनिया को
सच है, दुनिया हसीन ख़्वाब भी है
552
ख़्वाब समझें कि वाक़या समझें
तू ही बतला कि तुझको क्या समझें
553
ख़ाक के पुतलों में क्या है और इस दिल के सिवा !
दिल की रंगत ग़म से है, ग़म की रंगत आपसे
554
ख़ाक होकर भी खिल रहे हैं गुलाब
मौत इसमें भी मात खा ही गयी
555
ख़ामोश पड़े दिल को तड़पना सिखा दिया
हम पर किसीके प्यार के एहसान बहुत हैं
556
खिली गुलाब की दुनिया तो है सभी के लिये
मगर गुलाब है खिलता किसी-किसीके लिये
557
खिले हैं गुलाब आज होंठों पे उनके
कोई जुर्म करने को जी चाहता है
558
खिले हैं फूल उमंगों के चारों ओर जहाँ
कहीं पे बीच में यादों का एक मज़ार भी है
559
खिलेंगे गुलाब उनकी आँखों में अब तो
सुना, थोड़ी-थोड़ी ललाई हुई है
560
खींच लाये हैं उन्हें आपकी बाँहों में गुलाब
थोड़ा काँटों को भी इस बात का जस रहने दे
561
ख़ुद बेहिसाब, हमसे हरेक बात का हिसाब
तुमको अगर ख़ुदा न कहें, और क्या कहें !
562
ख़ुद ही माना कि फँसे दौड़के काँटों में गुलाब
कुछ तो इल्ज़ाम मगर आपके सर आता है
563
ख़ुद ही हम मंज़िल हैं अपनी, हमको अपनी है तलाश
दूसरी मंज़िल पे कोई लाख भटकाये तो क्या !
564
खुलके आओ तो कोई बात बने
रुख़ मिलाओ तो कोई बात बने
565
खुलके बरसे तो काली घटा
आँखें नम, और कुछ भी नहीं !
566
खुली-खुली-सी खिड़कियाँ, लुटी-लुटी-सी बस्तियाँ
बसे थे जो कभी यहाँ, गये वे छोड़कर कहाँ !
567
ख़ुशनसीबी है कि इस दौर में शामिल भी हैं हम
बेरुख़ी हमपे, इन आँखों की क़सम, और सही
568
ख़ुशबू न यह मिटेगी जो दिल में है बस गयी
जाकर कहीं भी प्यार की दुनिया बसाइए
569
ख़ुशबू है प्यार की भी छिपी चितवनों के पार
लेकिन हमारा आप पर दावा है यहीं तक
570
ख़ुशी के साथ जायें आप, जायें
नहीं है आँख मेरी नम, नहीं है
571
ख़ून अपना बहा रहे हैं गुलाब
लोग कहते हैं– ‘रंग अच्छा है’
572
ख़ून का ही हमारे क़सूर
हाथ क्यों उनके रँगता रहे
573
ख़ून जब अपने कलेजे का बहाते हैं गुलाब
पंखड़ी तब तेरे चरणों पे चढ़ाई जाती
574
ख़ून से अपने लिख गये हैं जवाब
हम उन आँखों की बेज़बानी का
575
ख़ूब काँटों में खिल रहे हैं गुलाब
प्यार की है सज़ा, इनाम भी है
576
ख़ूब झम-झमकर बरस काली घटा
यों न दम लेती हुई, थम-थमके आ
577
ख़ूब मातम मना रहे हैं दोस्त
कुछ मगर ज़िक्र हमारा तो हो !
578
ख़ूब है प्यार का यह दस्तूर
पास भी हैं हम दूर ही दूर
579
खेल है यह किसी जादूगर का, ज़ोर इस पर हमारा नहीं है
है सहारा यहाँ बस उसीका, और कोई सहारा नहीं है