ghazal ganga aur uski lahren
580
गंध कैसे छिपेगी, गुलाब !
ये पँखुरियाँ उन्हें भा गयीं
581
गंध बनकर हवा में बिखर जायँ हम, ओस बनकर पँखुरियों से झर जायँ हम
तू न देखे हमें बाग़ में भी तो क्या ! तेरा आँगन तो ख़ुशबू से भर जायँ हम
582
ग़ज़ल न पूरी हुई थी अभी कि उसने कहा–
‘बहुत है, ख़ूब है, ग़ालिब भी मात, चुप भी रहो’
583
ग़ज़ल में दिल तड़पता है किसीका
उन्हें कह दो, कलेजा थाम लेंगे
584
ग़ज़ल यों तो बहुत सादी थी मेरी
कोई क्यों रो दिया गाने के पहले !
585
ग़म बहुत, दर्द बहुत, टीस बहुत, आह बहुत
फिर भी दिल में है उसी बेरहम की चाह बहुत
586
गये किधर वे उमंगोंभरे बहार के दिन !
दिया कोई तो जलाओ कि हम भी देख सकें
587
गये जो आने का वादा करके, चले भी आयें कि वक़्त कम है
हदें भी हों ज़िंदगी की आगे, क़रार मिलने का पर यहीं है
588
‘गये जो फूल ही कुम्हला तो आके क्या होगा !’
हवा ये कहना, मिले तुझको जो बहार कभी
589
गये तो छोड़के दुनिया की आँधियों में हमें
कभी तो धूल ही आँचल से झाड़ दी होती
590
ग़रज़ कि कुछ तो ख़मोशी का सिलसिला टूटे
नहीं जो प्यार से कहते तो बेरुख़ी से कहो
591
गली में उनकी हज़ारों महक उठे हैं गुलाब
हमारे दिल की तबाही भी रंग ला ही गयी
592
गले से लगके नहीं हिचकियाँ रुकेंगी अब
बरसने आया है बादल तो जमके बरसेगा
593
गालों पे है गुलाब के, दिल के लहू का रंग
काँटों से ज़िंदगी को निखारे हुए हैं हम
594
गिरे थे तुम भी तो ऐसे ही चोट खाके कभी
हँसो न देखनेवालो ! बहुत उदास हूँ मैं
595
गीत को पंख लग गये जैसे
प्रेरणा बनके छा रहा है कोई
596
गीत, ग़ज़लें, या रुबाई, जो कहो
उनसे मिलने का बहाना चाहिए
597
गीत तो ये हैं सभी उनको सुनाने के लिये
कुछ मगर हैं मन ही मन में गुनगुनाने के लिये
598
गुलाब ! अच्छे हैं काँटे भी जो सीने से लगाये हैं
सहारा यह भी जीने का नहीं होता तो क्या होता !
599
गुलाब ! अपनी रंगीनियाँ पाके तुझमें
कभी दिल कोई झूम जाता तो होगा !
600
गुलाब ! अब उसी बाग़ में लौटना है
जहाँ से ये ख़ुशबू चुराई गयी है
601
गुलाब ! अब पँखुरियों की रंगत कहाँ वह
भले रूह तुमसे सिवा बन गयी है !
602
गुलाब ! अब भी डाल पे, भले ही तुम हो खिल रहे
कहाँ है सुर बहार के ! कहाँ हैं उनकी शोख़ियाँ !
603
‘गुलाब’ ! आज मिटने का ग़म है तो इतना
तेरे हाथ से अनगढ़े जा रहे हैं
604
गुलाब आज यों बाग़ में कह रहा था—
‘तुझे मैं भी, ऐ बेवफ़ा ! चाहता हूँ’
605
गुलाब ! आज होने को सब कुछ वही है
मगर उठ गया है बहारों का साया
606
‘गुलाब’ ! आता है क्या तुमको सिवा आँसू बहाने के !
यही तो ज़िंदगी में बस सुबह और शाम बाक़ी है
607
‘गुलाब’ ! आप कितनी भी ख़ुशबू छिपायें
नज़र कह गयी कुछ मगर मिलते-मिलते
608
गुलाब ! आप खिलते जो राहों में उनकी
तो ऐसे कभी बेसहारा न होते
609
गुलाब ! आप जिसके लिये खिल रहे थे
वही मुँह फिराकर चला जा रहा है
610
गुलाब ! आपका दिल पिरोना था जिसमें
वही एक उनसे लड़ी छूटती है
611
गुलाब ! आपकी ख़ुशबू तो उनके साथ रही
अब इसका सोच नहीं, पंखड़ी रहे, न रहे
612
गुलाब ! आपकी ख़ुशबू भी उनको क्या मिलती !
जो अपने पाँव पँखुरियों पे रखके आये हैं
613
गुलाब ! आपकी चुप्पी ही रंग लायेगी
सुगंध कहके बताने की बात कौन करे !
614
गुलाब ! आपके प्यार की बेल है यह
जँचे उनकी आँखों में बूटे, तो बूटे
615
‘गुलाब’ इतने हैं दुनिया की चोट खाये हुए
क़लम हवा में छिड़क दें तो शायरी बन जाय
616
गुलाब ! इन पँखुरियों को छितरा रहे वे
कलाई में कितना है दम, देखते हैं
617
गुलाब ! इनसे हरा है ज़ख़्म दिल का
मैं काँटों को कभी भूला नहीं हूँ
618
गुलाब ! इस बाग़ की रंगत थी तुमसे
वे किस मुँह से मगर यह नाम लेंगे !
619
‘गुलाब’ ! उनकी तुमने झलक भी न देखी
सुबह से हुई दोपहर चलते-चलते
620
गुलाब उनके चरणों में पहुँचें तो कैसे !
सभी ओर काँटें बिछाये हुए हैं
621
गुलाब एक दिन पास पहुँचेंगे ख़ुद ही
जो आओ तो क्या है, न आओ तो क्या है !
622
गुलाब ! एक दुनिया में घायल नहीं तुम
नहीं किसको काँटों ने जीना सिखाया !
623
गुलाब एक नाचीज़-सी चीज़ थे, पर
ग़ज़ब ढा रही है क़लम धीरे-धीरे
624
गुलाब ! ऐसे तो वे तेरी पँखुरियाँ नोचते कब थे !
नहीं कुछ प्यार भी इसमें छिपा हो, हो नहीं सकता
625
गुलाब ऐसे तो हर तितली से आँखें चार करते हैं
जो दिल की पंखड़ी छू ले, उसीको दिलरुबा समझें
626
गुलाब ! ऐसे भी क्या कम थी ये दुनिया !
मगर रौनक तुम्हींसे बढ़ गयी है
627
गुलाब ! ऐसे भी क्या चुप हो गये तुम !
खिलो कुछ रात घिर आने के पहले
628
गुलाब ऐसे ही खिलते हैं अब किसीने ज्यों
दिया जलाके मुक़ाबिल हवाके छोड़ दिया
629
गुलाब खिल नहीं पाते हैं जो बहार में भी
कमी तो कुछ है कहीं उनकी बाग़वानी में
630
गुलाब खिलते हैं डालों पे, यह तो देख लिया
गले में देखा जो काँटों का एक हार भी है !
631
‘गुलाब’ ! खुल न सका राज़ उसके जल्वों का
देखती हुस्न की जल्वागरी को हारी नज़र
632
गुलाब छिपके भी रह लेंगे डालियों में, मगर
नज़र जो उनकी अटक जाय, क्या करे कोई !
633
‘गुलाब’ ! जिसने भी हँसके देखा, उसीके तुम उम्र भर रहे हो
जो सच कहें तो सभी हैं अपने, यहाँ कोई अजनबी नहीं है
634
‘गुलाब’ ! तुमने भी फेंकी तो थी हवा में कमंद
पहुँच गये भी थे उन तक कि हाथ छूट गया
635
गुलाब देख तो लेंगे उन्हें आते-जाते
नज़र भले ही न मिल पाये, और कुछ मत हो
636
गुलाब बाग़ में करते रहे हैं सबसे निबाह
चुभे जो पाँव में काँटे तो वे भी साथ चले
637
गुलाब ! बाग़ में क्या-क्या न गुल खिलाता है
ये हर सुबह तेरे खिलने का एक नया अंदाज़ !
638
गुलाब ! बाग़ में तुमसे ही है बहार आयी
सुगंध प्यार की निकलो जिधर, लुटाते चलो
639
गुलाब ! बाग़ में फूलों के बादशाह हो तुम
धरा है सर पे जो काँटों का ताज, टूट न जाय
640
गुलाब बाज़ न आते हैं उनसे मिलने से
भले ही राह में काँटे बिछाये जाते हैं
641
गुलाब मिलते हैं हर शख़्स से अपने की तरह
अब उनको कोई बुरा या भला कहे तो कहे
642
गुलाब यों तो हज़ारों ही खिल रहे हैं यहाँ
है रंग और ही लेकिन तेरे दीवाने का
643
गुलाब ! सब यहाँ लगते थे दूर-दूर, मगर
चले जो मौज में गाते तो कोई दूर न था
644
गुलाब ! हमने ये माना बड़े रंगीन हो तुम
मगर जो बात भी कहनी हो, सादगी से कहो
645
गुलाब है यहाँ, बुड्ढा नहीं है कोई, जनाब !
हो-न-हो भूल ही कुछ आपकी पहचान में है
646
घड़ी-घड़ी में बदलता है बाग़ क्या-क्या रंग !
गुलाब ! अपने ही रंगों को आप क्या कहिए !
647
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़ी ही शान से आयी थी, तार-तार गयी
648
घुप अँधेरा है, सुनसान राहें हैं ये, कोई आहट कहीं से भी आती नहीं
खाये ठोकर न हम-सा कोई फिर यहाँ, एक दीपक जलाकर तो धर जायँ हम