kagaz ki naao

छूटते जाते पथ पर संगी
पर कैसे छूटे प्रभु! मुझसे, तेरा जग बहुरंगी!

कितनों ने यश-मान कमाया
कितनों को धन-वैभव भाया
मैंने तो जीवन-सुख पाया

तानें छेड़ कुढंगी

जो अंधे की लाठी मेरी
देता जिससे जग की फेरी
जब तक छुटे न मुरली तेरी

छुटे न वह सारंगी

अब मैं ही हूँ अपना पाठक
शोधक, निंदक और प्रशंसक
चलता ही जाऊँगा जब तक

सँग तू नाथ, त्रिभंगी!

छूटते जाते पथ पर संगी
पर कैसे छूटे प्रभु! मुझसे, तेरा जग बहुरंगी!