kagaz ki naao
प्रतीक्षा कब तक और करे!
कब तक, प्रभु! पथ जोहे यह मन श्रद्धा-रज्जु धरे
सूना गंगा-तट, बेढंगे
खड़े प्रेत-से पादप नंगे
कब तक जपता, ‘हरहर-गंगे’
मन भय से न मरे!
सभी ओर मुँह फाड़े मेरे
पावक की लपटें हैं घेरे
काल-निशा, हो रहे अँधेरे
गहरे ही गहरे
आओ वंशी लिये अधर पर
तन पर धरे, पीत पट सुन्दर
‘मा भय’ ध्वनि कानों के अन्दर
कुल संत्रास हरे
प्रतीक्षा कब तक और करे!
कब तक, प्रभु! पथ जोहे यह मन श्रद्धा-रज्जु धरे