kagaz ki naao

प्रेम जो अंतर में छाया है
उसके ही सुर में, प्रभु! मैंने तेरा गुण गाया है

मृदु शब्दों की खीर पकाकर
छिड़क भावनाओं का केसर
भक्ति-भाव की थाली में भर

मन तुझ तक लाया है

मोह-मलिन भी हो मेरा मन
फिर भी प्रेम-भोग है पावन
प्रभु! कृतकृत्य, इसे कर अर्पण

     यह मानव काया है

जग चाहे जिस भाँति परख ले
सोच न, ठुकरा दे या रख ले
तू यदि इसका कण भी चख ले

         मैंने सब पाया है

प्रेम जो अंतर में छाया है
उसके ही सुर में, प्रभु! मैंने तेरा गुण गाया है