kagaz ki naao
मुक्तक
मेरी भक्ति
क्यों न अनुरक्ति हो मुझे निज-अभिव्यक्ति में
तू ही है समाया, प्रभु ! मेरी पंक्ति-पंक्ति में
ज्ञान, ध्यान, अर्चना सभी हैं काव्य-शक्ति मेरी
पायी है विरक्ति इसी रागमयी भक्ति में
भरोसा
क्या कोई सुनेगा, पढेगा या इन्हें गायेगा
या जो लिखा मैंने सभी शून्य में समायेगा ?
मुझे तो भरोसा है, दिया यह काव्य जिसने मुझे
वही इसे जन-जन के हृदय तक पहुँचायेगा
‘कालजयी
झूमे जग, शक्ति वह न स्वर में है
मान, यश, प्रतिष्ठा अधर में है
देश में हार रहा मैं, लेकिन
काल की नस तो मेरे कर में है
मोतियों की माला
देखी गुणियों ने जब यह मोतियों की माला है
बोले, ‘तूने चोरी की या डाका कहीं डाला है’
कैसे मैं बताऊँ उन्हें, इसका हर मोती तूने
डूब-डूब गहरे काल सिंधु से निकाला है !
मेरा हार
बोले लोग, ‘सुषमा तेरे हार की निराली है
लगता, तूने रत्नोंभरी खान कोई पा ली है
क्या कहूँ उन्हें कि कैसे इसकी हर कनिका, मैंने
काल की शिलाएँ तोड़-तोड़कर निकाली है
स्वतंत्रता-संग्राम
देखकर जिनको ये नयन हुए धन्य हैं
अंकित हत्पट पर वे विभूतियाँ अनन्य हैं
साक्षी हूँ भारत के स्वतंत्रता-संग्राम का मैं
ऐसे भाग्य-संमुख अन्य सिद्धियाँ नगण्य हैं
ये नयन
जिनसे पराधीन देश मुक्ति-मंत्र पा सका
देखा है इन्होंने मुख गाँधी का, सुभास का
रख लेना चिताग्नि से बचाकर ये नयन, इनमें
अंकित स्वर्णयुग है भारतीय इतिहास का
संत और नारी
संतों ने भले ही जीवन मुक्त होकर जिया है
पत्नी को तो जीवन भर का दुख ही दे दिया है
नारी-हृदय-रक्त से ही सींची संतता की बेल
तुलसी और भरथरी ने क्या न यही किया है !
कवि से
आशा नहीं कोई फिर भी आशा एक पाल ले
चेतना-चषक में कल्पना की सुरा ढाल ले
पाया न हो प्रेम, पर किसीकी मुग्ध दृष्टि से ही
मन में प्रेम-रागिनी के सातों सुर निकाल ले
मित्रों से
जो भी मुझे लिखने में पड़ा है सहना
क्या कहूँ उसे ! अब है बस यही कहना
यदि पढ़ न सको, बंधु ! किताबों को मेरी
बस धूल ही उन पर से हटाते रहना
आत्मविश्वास
बूढ़ा हुआ तो क्या हुआ, यह दिल तो है जवान
रौशन उसीसे प्यार की दुनिया करूँगा मैं
खड़काये लाख साँकलें आ दर पे बारबार
मरने के पहले मौत को आने न दूँगा मैं
आत्मघाती से
बेगुनाहों का कत्ले-आम करे
मर्द भी ऐसा कभी काम करे !
यही कहता है क्या कुरान तुझे !
धर्म का नाम क्यों बदनाम करे !
मुग्ध दृष्टि
किसने यह मौन छवि मुखर की है
रागिनी मधुर हर अधर की है
हर सुमन अंश अंशुमाली का
हर कली कला कलाधर की है
संध्या के गुलाब
देखा तो बहुत बाग में खिलना गुलाब का
डाली पे बड़ी शान से हिलना गुलाब. का
यह तो कहो, खुशबू पे उसकी झूमनेवालो-
देखा भी कभी धूल में मिलना गुलाब का !
मधुपान
प्यार कुछ तो इसी बहाने दो
दोस्ती में गले लगाने दो
क्या जो हाथों में नहीं हैं प्याले !
होंठ होंठों सें ही टकराने दो
मुक्ताहार
रातो की नींद, दिन की भूख-प्यास त्यागे
गूँथता ये मुक्ताहार किसके हित, अभागे !
आयेगा कभी क्या कोई पारखी भी इनका !
कब तक टिकेंगे कच्चे सूत के ये धागे !
महाकवि
मैंने तो लिखा न कुछ भी उसीने लिखाया है
उँगली धरे शिशु की जननी ने ही चलाया हैं
कौन जाने, कब किस पर होती यह कृपा की दृष्टि
महामूर्ख को ही उसने महाकवि बनाया हे
असंगति
लिखता हूँ तो पढ़नेवाला नहीं मिलता कोई
पढ़ता हूँ तो लिखनेवाला ही नहीं है
क्यों न लेखनी दूँ तोड़, मूँद लूँ आँखें अपनी
जब वह पहले की रंगशाला ही नहीं है