kagaz ki naao
कागज की नाव
सागर में ले के चला कागज की नाव रे
सिंधु लाँघने की तुझे यह क्या सूझी, बावरे !
भीम लहरों में जहाँ रह न सके हैं खड़े
करके प्रयल जलयान भी बड़े-बड़े
कितना भी नाचे, कूदे, बढ़े, अँकड़े, अड़े
बच न सकेगा ये लगा के सभी दाँव रे
लाये थे प्रभूत रत्न-राशि जो बटोरकर
शास्त्र जो लिए थे सभी उँगली की पोर पर
कूद गये धारा में सभी अदृश्य डोर धर
छोड़ना पड़ा है उन्हें ज्यों ही यह गाँव रे
सिंधु लाँघने की यह क्या जी में तेरे आयी है !
लहरों के आगे किसीकी न चल पायी है
सागर में सहर्ष डूबने में ही भलाई है
चादर के बाहर क्यों पसारे निज पाँव रे !
और यह नाव भली चुनी है उमँगकर
इस के तो शत्रु सौ खड़े हैं पग-पग पर
बची डूबने से किसी तीर से भी लगकर
फटेगी, जलेगी या बिकेगी बिना भाव रे
सागर में ले के चला कागज की नाब रे
सिंधु लाँघने की तुझे यह क्या सूझी बावरे !
मई 08