kagaz ki naao
क्षीण हो रही काव्य की धारा
अवगाहन-हित, बंधु! तुम्हें मैं कब तक करूँ पुकारा!
मंद हुआ जाता स्वर मेरा
आओ लाँघ काल का घेरा
यह रस, यदि अब भी मुँह फेरा
पाओगे न दुबारा
गीत सहस्र, द्विशत हैं दोहे
नित-नव ग़ज़ल वर्ष भर मोहे
अर्द्ध सहस्र चौपदों को है
मैंने रचा, सँवारा
सॉनेट, गीति-नाट्य, रसवाले
महाकाव्य दो-दो रच डाले
मुक्तछंद की विविध विधा ले
लिखते-लिखते हारा
क्षीण हो रही काव्य की धारा
अवगाहन-हित, बंधु! तुम्हें मैं कब तक करूँ पुकारा!