kumkum ke chhinte

मेरी आयु के चालीसवें दिनमान!
जेठ के मध्याह !
अर्जुन के चढ़े गांडीव-सा,
मैं आज तेरा कर रहा स्वागत
नए संकल्प से तनकर
पड़ी हो गाँठ ज्यों शिव की सिहर जगती भवों में
नाचता जैसे कन्हैया
काल-कालिय के विषम फुफकारते फण पर।
खुल रहे आवर्त पर आवर्त
मन के,
द्वार में ज्यों द्वार खुलते हों,
सहस्रों दर्पणों के बिंब ज्यों पड़ रहे दर्पण पर।
अटल दुर्धर्ष हे अनजान !
मेरी आयु के चालीसवें दिनमान

घाटियाँ वे अनमनी छूटीं
जहाँ थे लहलहाते कल्पना के खेत केसरिया,
बिना बोये रँगीले स्वप्न की फसलें
बहुत लूटीं,
जहाँ का हर उपल मणि-रत्न-सा था
हर कली
सौंदर्य, मृदुता, चेतना, लावण्य की प्रतिमा सुनहली,
हर विटप से काकली फूटी।
अहर्निश
हास-मुक्तोज्ज्वल अमित पथबंधु निर्झर
सलज वल्लरियाँ
चमकते जुगनुओं-से नयन जिनके
देखकर मुझको अलक्षित दूब की परियाँ,
कहाँ वे आज सब!
जैसे तिरोहित ताप से तेरे विकल भय मान।
मेरी आयु के चालीसवें दिनमान!

दूर मैं सुनता
उतरते कारवाँ की घंटियाँ,
तम के जलधि में डूबतीं ध्वनियाँ सभीता,
सिसककर बुझ जायगी आगे ध्रुवों की शीतता में
ज्योति की सीता
न कर अब पार लक्ष्मण-लीक मेरी आयु की,
बीता, बहुत बीता।
अभी तक
राग में टंकार है,
गति है, प्रखरता है,
न टूटे तार, मेरी मान,
अब मत तान, अब मत तान,
मेरी आयु के चालीसवें दिनमान!

चित्र में तुझको करूँ बंदी
कि यौवन हो अमर तेरा,
प्रिया-भ्रू-भंग शाश्वत हों!
कि शब्दों में तुझे बाँधूँ,
न जिनमें चपल रंगों की क्षणिकता, दृश्य की सीमा
अमर आलोक आत्मा का
प्रलय तक भी यथावत्‌ हो!
कन्हैया और राधा का
अमर कैशोर्य ज्यों
उस अंध-कवि की काकली में गूँजता है,
या अनुज-सीता-सहित चिर तरुण राघव-रूप ज्यों
कवितावली में,
विश्व जिसको आज तक भी पूजता है।
हो खड़ी स्मित ट्राय की दीवार पर
हेलन, सहस्तरों युद्धपोतों को
निमंत्रण दे रही अब भी,
तुझे भी बाँध दूँ
इस कर्क रेखा पर वयस की
सतत एक समान!
मेरी आयु के चालीसवें दिनमान !

1965