kumkum ke chhinte
श्री बेढब बनारसी के निधन पर
हम उन्हें नदी के तीर पर छोड़ आये हैं
तिमिर को चीरकर जहाँ
सूरज का लाल-लाल गोला निकलता है।
हमने उन्हें दूध से नहलाया,
शुभ्र, गोरे ललाट पर चंदन का तिलक लगाया
और फिर धीरे से धरती की गोद में सुलाया।
लगता था वे हँस रहे थे,
अब बोलेंगे तब बोलेंगे जैसे,
अधर यों विकस रहे थे।
पर वे बोले नहीं,
मूँदे जो नयन तो फिर खोले नहीं।
हमने उन्हें प्रणाम किया,
कहा – अनकहा सब
स्मृतियों में बाँध लिया
और चुपचाप मुँह फेरकर चले आये।
हम उन्हें नदी के तीर पर छोड़ आये हैं
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता है
काल उनके लिये थम गया है,
पवन उनके लिये जम गया है,
उनका हृदय अब धड़कता है मेरे हृदय में
अंतर पहले से हो कुछ कम गया है
वे अब कहीं नहीं हैं
या यों कहिये कि सब कहीं हैं,
एक अज्ञात सुषमा दमक रहो हैं,
पवन में, जल में, पृथ्वी, पर
उनकी ही चेतना चमक रही है,
पावक में उनकी ही प्रखरता है,
गगन में उनकी ही मुखरता है,
मेरे अंदर-बाहर चारों ओर
उनका ही प्रेम है लिपटा हुआ,
देह की सीमा तो एक बंधन थी
जिसमें व्यक्तित्व था सिमटा हुआ,
तन के टूटते ही वे विराट् बन गये,
अक्षय सुषमा के सम्राट् बन गये।
विदा हे प्राणों के सखा!
जीवन के सहचर!
आत्मा के बंधु!
अब कभी हमारी भेंट नहीं होगी।
काल की अनंत डोर में,
हमने मिलकर जो गाँठ लगायी थी
वह खुल गयी है,
अब हमारे हृदय साथ-साथ नहीं धड़केंगे,
वर्षा, ग्रीष्म, शरद, सभी ऋतुएँ आयेंगी
पर अकेले ही मैं उनका अनुभव करूँगा,
अकेले ही जिऊँगा, अकेले ही मरूँगा।
अब कभी हमारी भेंट नहीं होंगी,
हें चिर-दिन के साथी!
विदा!
मैं अजनबी, अनजान भीड़ से घिरा,
बहती हुई विश्व-सरिता के तीर से,
तुम्हें श्रद्धांजलि दे रहा हूँ।
हे अनंत के यात्री!
विदा–
1968