kumkum ke chhinte

चन्द्रमा पर अवतरण

‘पहुँच गया है चंद्रमा पर मानव पदचाप’
पढ़ते हो पत्रों में,
छा गया हृदय में अद्भुत उल्लास,
और दूसरे ही दिन
चित्र दिखे चंद्र-भूमि-तल के जब अनगिनत
खाई, खोह, गर्त, गह्नरों से चितकबरे,
पर्वत विशाल कहीं सागर थे गहरे,
मानव का यान जिस प्रदेश में था अटका,
मन को तब सहसा लगा एक झटका;
देवता रहा जो मनुजों का आदि युग से,
कवियों के शाश्वत्‌ सौंदर्य का प्रतीक और
होड़ लेता तरुणी के सुंदरतम मुख से,
चाँद वह आज दयनीय बहुत लगता था,
स्वप्न-सरसी का झिलमिलाता हुआ पारिजात
अब तक क्या नभ में गैसबत्ती-सा टँगता था?
पूजेगा कौन अब इस मरु-प्रदेश को |
सुंदर कहना तो इसे अपमान सुंदरता का
(रूपसी कौन भला चाहेगी बनना
चंद्रमुखी, चंद्रानना!)
पहले तो कलंकी ही था किंतु अब कुवेश जो।

सोच ही रहा था अभी खिन्‍न-मन, उदास मैं,
तभी चाँद पूर्णिमा का बाँका’
उठा इठलाता हुआ दायें अमलतास में
और वहीं पर से मुस्कुराता हुआ मुझ पर
मधु के उड़ेलने लग ज्यों घट भर-भर,
सोने के थाल जैसा गोल और पीला
शीतल आलोकभरा,
पत्तों के बीच धरा,
लगता था कितना द्युतिपूरित, फबीला!
अनुभव किया तभी मैंने सोल्लास,
वैज्ञानिकों की चीर-फाड़ से भी तिल भर को
मिटा नहीं जैसे नारी-रूप का उजास
वैसे ही चाँद सदा मोहेगा मन को यह
ऐसी ही अमंद शोभा, निर्मलता, कांति लिये
युग-युग तक आकर इन्हीं तरुओं के पास।

1971