naye prabhat ki angdaiyiyan

तुम्हारे पत्र से प्यार की खुशबू आ रही है,
इसका प्रत्येक शब्द चुंबन की तरह है,
इसकी प्रत्येक पंक्ति,
मुझे अपने आलिंगन में कसती जा रही है।

लगता है,
इस कागज के टुकड़े पर
तुम्हारा धड़कता हुआ हृदय ही
उड़कर चला आया है,
वह सब इन रेखाओं से साफ झलकता है
जो तुमने यत्लपूर्वक मुझसे छिपाया है।

यहाँ तुम्हारी उँगलियाँ काँपी थीं,
यहाँ एक आँसू की बूँद गिरी थी,
यह तिरछी लिखावट साक्षी है,
यहाँ तुम्हारी सशंक दृष्टि द्वार की ओर फिरी थी।
बीच में यह आड़ी लकीर क्‍यों है ?
क्या यहाँ तुम्हारा उदास मुख
कागज पर नहीं झुक गया था!
और यह विराम-चिह्न क्या पुकार-पुकार कर नहीं कह रहा हैं
यहाँ तुम्हारा हाथ लिखते-लिखते लज्जा से रुक गया था!
ये अधूरे वाक्य क्या कहते हैं !
इन शब्दों को काटने में
तुमने इतनी सावधानी क्यों दिखायी है!
अलक-गंध से सुवासित
इस मुड़े-तुड़े कागज से साफ झलकता है,
कितनी ही रातें
इसनें तुम्हारे तकिए के नीचे बितायी हैं।

यह पूर्णविराम नहीं है,
अपने श्रांत कपोल
अब तुम कुहनी के सहारे टेक रही हो,
और अंत के इस हस्ताक्षर से सिर निकालकर,
मुस्कुराती हुई मेरी ओर देख रही हो।

1983