naye prabhat ki angdaiyiyan

प्रेम का राज्य

हमें कौन अलग कर सकेगा।
लोक-मर्यादायें !
सामाजिक बाधायें !
पर वे तो हमारे तन पर पहरा लगाती हैं,
हमारे मन को कहाँ बाँध पाती हैं !
जहाँ हम मिलते हैं,
वहाँ आकाश में ही कुसुम खिलते हैं।
पंचभूतों से परे
वह हमारी आत्मा की रंगस्थली है,
वहाँ हमारी भावनाओं की सुगंध उड़ती है,
हमारी चेतना ही वहाँ विविध रूपों में ढली है।
यों तो देश और काल
सभी को दूर-दूर कर देते हैं,
हर चौकड़ियाँ भरते हरिण के पाँव बाँध देते हैं
हर उड़ते हुए पंछी के पंख कुतर देते हैं,
पर वहाँ देश और काल भी
हमें छू नहीं पायेंगे,
हमें कोई अलग नहीं कर सकेगा
जब हम प्रेम के उस राज्य में प्रवेश कर जायेंगे।

1983