naye prabhat ki angdaiyiyan

मोह-भंग

एक समय था
जब मेरे कान हरदम
तुम्हारा पदचाप सुनने को रातों जगते थे,
तुमसे आँखें मिलते ही,
रहस्यों के अगणित द्वार खुलने लगते थे,
हमारी हथेलियाँ अनजाने ही
आपस में गुँथ-गुँथ जाती थीं,
और हम कछ समझ सकें, इसके पूर्व ही
अधर अधरों में घुलने लगते थे;
लतायें हजार-हजार आँखें फाड़े
हमारी ओर ही देखा करती थीं,
पत्तों की हलकी सरसराहट भी
हमें आशंकित कर देती थी
हवा की एक छोटी-सी लहर भी
हमारे रोम-रोम में सिहरन भर देती थी,

और आज,
वह सब जैसे एक सपना हो गया है,
पता नहीं जीवन का वसंत
अब किधर छिप गया है,
ग्राणों का वह उन्माद
आज कहाँ खो गया है।’

1983