naye prabhat ki angdaiyiyan

रूप से अरूप की ओर

यदि यौवन के प्रथम चरण में
मैं इस भूमि पर चरण धरता
तो पता नहीं, कैसा अनुभव करता।
आज तो प्रत्येक मुस्कुराती हुई तरुणी
मुझे देव-प्रतिभा के गले में पड़ी
फूलों की माला-सी दिखाई देती है।
उसके दुग्ध-धवल अंगों की निर्मल कांति
हवनकुंड से उठती ज्वाला-सी दिखाई देती है।
यों तो उसके अधरों की अधखुली मुस्कान
हृदय पर सोने की रेखायें खींच देती है,
लगता है जैसे
वह मुझे अपने आलिंगन में भींच लेती है,
पर उसकी आत्मा में खुलनेवाली
उन खिड़कियों से झाँकने पर
मुझे सदा किसी स्नेहमयी देवी का ही दर्शन होता है,
मन में कुछ खिँचता-सा तो लगता है,
पर वैसा ही
जैसा भाई-बहन के बीच का आकर्षण होता है।

फूल का फल में परिणत हो जाना ही
उसकी सार्थकता है,
रूप के माध्यम से ही
अरूप को पाया जा सकता है।

1983