naye prabhat ki angdaiyiyan

रूप और नाम

मैं रूप नहीं हूँ
मैं नाम हूँ।
मैं कुछ भी क्‍यों न करूँ,
अपने रूप को नहीं बचा सकता!
नाम ही एक ऐसा है
जिसे काल भी नहीं खा सकता!
इसीलिए मैं उसीको बचाने में लगा हूँ,
रूप की ममता छोड़कर
नाम को ही सजाने में लगा हूँ।

पर मैं नहीं जानता
नाम भी कहाँ तक मेरा अपना है,
इसके बचे रहने से मैं बचा रहूँगा,
यह सत्य है या भावुक मन का सपना है।
मेरा नाम कुछ और भी तो हो सकता था!
इसके खो जाने से ही मैं कैसे खो सकता था!
संयोग से प्राप्त यह परिचय-पत्र
कैसे मेरा अभिन्न हो जायगा।
यह तो एक काल्पनिक आवेष्टन मात्र है
जो देह के साथ-साथ स्वयं मुझसे विच्छिन्न हो जायगा।

परन्तु यदि यह सत्य भी हो
कि मृत्यु के बाद
रूप और नाम दोनों ही मेरे लिए व्यर्थ होंगे,
तो भी मन को इस विचार से
अधिक संतोष मिलता है
कि मेरे नाम से भेजे गये संदेश
शायद उस समय भी
मुझ तक पहुँचने में समर्थ होंगे।

1983