naye prabhat ki angdaiyiyan
श्रेष्ठता की होड़
बहुत दिन पहले की बात है,
राजस्थान के दो राजपूत कबीलों में
श्रेष्ठता की होड़ चली,
एक दूसरे से अपने को ऊँचा प्रमाणित करने के लिए.
दोनों ओर से चमकती तलवारें निकलीं |
किंकर्तव्य-विमूढ़ राजा ने कहा–
जो कल सवेरे सबसे पहले
मेरे दुर्भद्य किले में चरण धरेगा
दरबार में सबसे ऊँचा आसन उसीका होगा,
विजय- श्री वही वरण करेगा।
दोनों कुलों के नायक
एक-से-बढ़कर-एक लड़ाके थे,
शौर्य और साहस में
कोई किसीसे कम नहीं था,
दोनों को अपनी-अपनी कुल-मर्यादा समान प्रिय थी,
जान जाने का किसीको भी
रत्ती भर ग़म नहीं था।
दूसरे दिन तड़के ही बंद किले का द्वार तोड़ने को
एक ने अपना प्रिय हाथी
आगे बढ़ा दिया,
और कपाट के नुकीले तीरों से उसे पलटता देखकर
बीच में अपना शरीर ही अड़ा दिया।
किन्तु स्वामी की लोथ लिए
ज्यों ही हाथी ने परकोटे में पण डाला था
त्यों ही दूसरे कुल के नायक ने अपना सिर काटकर
दीवार पर से अंदर की ओर उछाला था।
यह बात बहुत पुरानी हो चुकी,
पर लेखनी की होड़ में
अब भी श्रेष्ठता ऐसे ही आँकी जाती है,
पहले मस्तक उतारकर देवी पर चढ़ा दिया जाता है,
तब कहीं गले तक जयमाला आती है।
सच कहें तो
शब्द वही महान है
जिसकी जड़ों में हृदय का रक्त हिलोरें लेता है,
लिखने के पहले कविता को जीना होता है,
हमारा बलिदान ही
हमारे कृतित्व को प्रामाणिकता देता है।
1982