naye prabhat ki angdaiyiyan

सड़क के किनारे का कब्रिस्तान

सड़क के किनारे का कब्रिस्तान,
अनवरत भागती मोटरों की भीड़ में भी
कितना अकेला! कितना बीरान!
मैं बराबर इसके पास से निकलते समय
मन-ही-मन सिहरने लगता हूँ,
अनजानी आशंकाओं से भरने लगता हूँ।

जीवन और मरण की विभाजन-रेखा
कितनी क्षीण है !
अस्तित्व और अनस्तित्व का अंतर
कौन बता सकता है!
प्रश्न चिर-पुराण है फिर भी चिर-नवीन है।
समझ में नहीं आता
अस्तित्व अनस्तित्व में कैसे बदल जायगा!
जिसकी अपनी ही कोई सत्ता नहीं है,
वह सत्ताधारी को कैसे निगल जायगा!
हम यदि हैं,
तो कोई हमें मिटा नहीं सकता है
और यदि हमारी अस्मिता
जड़ता का ही विकार है
तो कोई हमें विलुप्त होने से बचा नहीं सकता है।

इस कब्रिस्तान में सोनेवाले भी
कभी हम जैसे ही जीते-जागते इंसान थे,
जीवन की समस्याओं में उलझे हुए
अपनी इस नियति से अनजान थे;
कोई माँ अपने दुधमुहे बच्चे को
बिलखता छोड़कर यहाँ भाग आयी है,
किसी किलकारियाँ भरती बच्ची को
छिपने के लिए यंही जगह भायी है,
एक पत्ली ने अपने पत्ति का साथ
आधी ढलान पर छोड़ दिया है,
एक निष्दुर पति ने सदा के लिए
अपनी सहधर्मिणी से मुँह मोड़ लिया है;
कोई शैशव में
और कोई भरी जवानी में
यहाँ चला आया है,
कोई संगमरमर के मंडप में सोया है,
किसीको एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा ही भाया है।
जीवन की समस्त महत्वाकांक्षायें और उपलब्धियाँ
यहाँ आकर चुक गयी हैं,
चे अगणित भावनाएँ जो इनके हृदय में
हिलोरें लेती थीं,
इस किनारे पर पहुँचकर रुक गयी हैं।

शिला-लेखों को बाहर-बाहर से पढ़ता
मैं इस कब्रिस्तान की बगल से
निकल जाता हूँ।
अंदर जाने का जी तो बहुत करता है
पर द्वार में प्रवेश करने से घबराता हूँ।
मैं जानता हूँ, इस सीमा में प्रविष्ट होकर,
कोई लौट नहीं पाता है,
यहाँ जो भी आता है, सदा के लिए ही आता है।

1983