naye prabhat ki angdaiyiyan

अभिवादन, अमेरिका!

नयी सभ्यता का पालना,
नये विचारों की प्रयोगशाला,
भूगोल को गेंद की तरह मुट्ठी में दबाकर दौड़ते हुए
मानव की पहली उड़ान
यह धरती कितनी सुंदर है।
व्यक्ति की विजय का तूर्यनाद,
स्वतंत्रता का घोषणापत्र,
यह हरा-भरा प्रदेश कितना मनोहर है!

कितने हजार वर्षो से यह सुजला-सुफला
अपने आँचल में लक्ष-लक्ष मणि-माणिक सँजोये
अतलांत सागर के उस पार से
हमें पुकार रही थी!
कितने हजार वर्षों से यह वनवासिनी
गले में शत-शत नद-निर्झरों का हार पहने
झीलों के दर्पण में झिलमिलाती
गिरि मालाओं की लटें छितराये
हमारे लिए अपना आँगन बुहार रही थी!

इसका यह उमड़ता, उछलता, उल्लसित स्वरूप
कितना लुभावना हैं, कितना सहज है !
लगता है मेरे चारों ओर
रंग-बिरंगे फूलों का मेला लगा है,
सतत आलिंगन को बाँहे फैलाती
अल्हड़ तरुणियों-सी तरुशाखाएँ,
चुम्बनों से लदा हवा का झोंका,
सब कुछ अनूठा है, सब कुछ अलबेला लगा है,

सबके लिए यहाँ मुस्कानें ही मुस्कानें हैं
सभी अपने हैं, कोई अजनबी या पराया नहीं है,
गोरा हो या काला, गरीब हो या अमीर,
ऐसा कोई नहीं,
जिसे इस धरती ने गले से लगाया नहीं है।

एक ही चरण-निक्षेप में
मैं दैन्य और निराशा की सीमाओं से
हज़ारों कोस आगे निकल आया हूँ,
इसके एक ही संकेत में
जैसे जीवन का अर्थ बदल गया है।
नये प्रभात की अँगड़ाइयाँ
नया सूर्योदय; नया आकाश
नये पक्षियों की चहचहाहट,
सब कुछ अब नया ही नया है।

1983