naye prabhat ki angdaiyiyan

अंगरक्षक

काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार,
इन पाँचों से लड़ने में ही आयु बीत गयी,
ज्ञान और वैराग्य की सारी पूँजी
रीत गयी।
रक्तबीज-से ये पाँचों
मर-मरकर भी नया जीवन पाते रहे,
पराजित हो-होकर भी
निरंतर अपना सिर उठाते रहे !

शार्दूल-गर्जन से त्रस्त,
बिलों में दुबके चूहों-से,
जरा-सी आँख लगते ही
ये मस्तक पर चढ़ आये,
दगाबाज शत्रुओं-से
अँधेरे का लाभ उठाकर
अंतःपुर तक बढ़ आये!

जो घर में रहकर ही
सतत हमारे विनाश की युक्तियाँ रखें,
ऐसे अंगरक्षकों से
राम ही बचाये तो बचें।

1983