naye prabhat ki angdaiyiyan

अँधेरी नदी

मेरी आँखों के आगे
एक अँधेरी नदी बहती है!
मैं स्वयं तो उसके किनारे-किनारे चलता हूँ.
पर मेरी छाया
उसकी लहरों में डूबती-उतराती रहती है।
जाने कितने ग्राह उसकी धारा में
मुँह बाये खड़े हैं!
जाने कितने जल-जंतु उसके तल में चिपटे पड़े हैं।
कुछ तो ऐसे हैं
जो अपनी सुंदरता से मन मोह लेते हैं,
घातक होने पर भी
रंग-बिरंगे फूलों-से दिखाई देते हैं
किंतु कुछ ऐसे हैं
जिनसे आँखें मिलते ही
मैं आतंक से भर जाता हूँ,
उनके बीच अपना प्रतिबिंब देखकर ही डर जाता हूँ।
पर उस नीलाभ झिलमिलाहट में
एक लुभावना कमल भी खिला है
जिसका स्पर्श अपने अधरों पर पाकर
मन को बहुत सुख मिला है।

1983