naye prabhat ki angdaiyiyan
केवल मैं नहीं रहूँगा
यह आकाश सदा ऐसे ही टँगा रहेगा
और यह ऋतंवरा धरती निरंतर ऐसे ही अँगड़ाइयाँ लेगी,
सागर की यह अपार जलराशि
अपनी शत-शत भुजायें फैलाकर
सदा ऐसे ही तीर की ओर उमड़ा करेगी,
केवल मैं नहीं रहूँगा।
बसंत के आते ही खेतों में सरसों का पीलापन बिखर जायगा,
आम की डाल से कोयल कूकेगी,
वातावरण फूलों की सुगंध से भर जायगा,
सहसा पलास-वनों से उठती आग की लपटों को देखकर
नवोढ़ाओं का हृदय डर जायगा
सब कुछ वैसा ही होगा जैसा प्रतिवर्ष होता है,
केवल मैं नहीं रहूँगा।
हवा के घोड़ों पर सवार
सावन के बादल ऐसे ही सूरज को घेर लिया करेंगे,
रिमझिम बरसती फुहारों को देखकर
व्याकुल प्रवासी घर की ओर मुँह फेर लिया करेंगे,
ऐसे ही उफनती होंगी नदी की यह धारा
ऐसे ही टूट-टूटकर गिरेगा यह हरा-भरा किनारा
केवल मैं नहीं रहूँगा।
जी करता है इन दूधिया सवेरों से नहा लूँ,
इन कजरारी रातों से लिपटकर सो जाऊँ,
बाँहों में भर लूँ यह नीला आकाश
इन हवाओं से मिलकर एक हो जाऊँ।
आह! ये सब कल भी ऐसे ही रहेंगे,
केवल मैं नहीं रहूँगा।
ओ माँ धरित्री !
कहीं तो तेरी अनजानी गलियों में मेरी धूल उड़ती होगी !
गंगा की धारा में घुलकर गयी राख
कभी तो मेघों के सँग वापस मुड़ती होगी!
यहाँ से जाने का यह अर्थ तो नहीं
कि मैं कहीं और भी रहूँ ही नहीं,
आकाश में बिजलियों के साथ चमकूँ ही नहीं,
सागर में लहरों के साथ बहूँ ही नहीं!
यहाँ मेरा सब कुछ रहेगा,
केवल मैं नहीं रहूँगा।