pankhuriyan gulab ki

जी से हटती ही नहीं याद किसीकी गुमनाम
जैसे बीमार के आँगन में बरसती हुई शाम

तू जो परदा न हटाये तो ये किसका है क़सूर !
हमने यह रात लिखा दी है तेरे प्यार के नाम

फिर से बिछड़े हुए राही जहाँ मिल जायँ कभी
दूर इस राह में ऐसा भी कोई होगा मुक़ाम

उनसे कहने की तो बातें थी हज़ारों ही, मगर
मुँह भी हम खोल न पाये कि हुई उम्र तमाम

हमने माना, बड़ी नाज़ुक है क़लम तेरी, गुलाब !
पंखड़ी भी कभी कर देती है तलवार का काम