pankhuriyan gulab ki

झलक रही हैं उन आँखों में शोख़ियाँ कैसी !
हमारे दिल में तड़पती हैं बिजलियाँ कैसी !

चिराग बुझ न गये हों कहीं मकानों के
हवा में तैरती आती हैं सिसकियाँ कैसी !

जहाँ पे दोस्त कई मुँह फिराके छोड़ गये
ये बीच-बीच में आती हैं बस्तियाँ कैसी !

कोई तो छिपके सितारों से देखता है हमें
खुली हुई हैं अँधेरे में खिड़कियाँ कैसी !

भले ही बाग़ में उनके न खिल सके हैं गुलाब
मिली हैं पर ये निगाहों में शोख़ियाँ कैसी !