pankhuriyan gulab ki

भले ही दूर नज़र में सदा रहा हूँ मैं
महक तो आपकी साँसों की पा रहा हूँ मैं

मिलेगा कुछ तो उजाला भटकनेवालों को
चिराग़ अपने लहू से जला रहा हूँ मैं

निशान आपके क़दमों के मिल न पाते हों
निशान सर की रगड़ से बना रहा हूँ मैं

ज़माना हो गया आँखों का खेल चलते हुए
गले से आज तो लगिए कि जा रहा हूँ मैं

किसीने अपनी उँगलियों से छू दिया है, गुलाब !
नहीं पता भी मुझे अब कि क्या रहा हूँ मैं