prem vina

1
दीप से पतंग ने प्रकाश नहीं माँगा था
भ्रमर ने कली से मधुमास नहीं माँगा था
रूप को तनिक देखना भी पाप हो गया!
मैंने त्तो तुम्हाग भुजपाश नहीं माँगा था

2
गीतों को छाँह तले प्रेम हुआ पहला
सपनों में नभ-गंगा-तीर किये टहला
जग देखा तप्त, स्याह सड़कों से तुमको
सजते किसीका रंगमहल तिमहला

3
चाँद का दाग कहीं छूटता है!
पूर्व अनुराग कहीं छूटता है!
माँग सिंदूर से भरो कितनी
प्राण का फाग कहीं छूटता है!

4
आपका मंद मुस्कुराना सत्य है कि नहीं!
मिलन का यह मधुर बहाना, सत्य है कि नहीं!
प्रेम का बोझ तो माना कि उठ नहीं सकता
एक पल किंतु बहक जाना, सत्य है कि नहीं!

5
तारों को छुऊँ ऐसे कि झंकार न हो
आँखों से मिले आँखें और प्यार न हो
सोयी ही रहे साध मधुर अंतर में
जाने उन्हें स्वीकार हो, स्वीकार न हो

6
चेतना में कहीं विरोध न हो
भग्न प्रतिबिंब देख क्रोध न हो
मैं तुम्हारी अनन्यता पा लूँ
प्राण में रहूँ और बोध न हो

7
कहीं ऐसा न हो कि मन की बात
आप मत कहें, दृष्टि कह जाये
प्रेम तो एक पूर्णता पा ले
किंतु जीवन अपूर्ण रह जाये

8
प्रेम तो तार नहीं ऐसा क्षीण
देखकर भी न देख पाओ तुम
बात यह और है कि धुन न सुनो
बात यह और है, न गाओ तुम

9
सब पुण्य और पाप समझता हूँ मैं
जो कह न सकीं आप समझता हूँ मैं
तुम जानके अनजान-सी क्‍यों रहती हो
यह प्राण का परिताप समझता हूँ मैं

10
प्यार का फूल यह, खिले न खिले
विश्व की यवनिका, हिले न हिले
आज जी भरके देख लेने दो
कल मधुर रात यह, मिले न मिले

11
बात कुछ, देखा-न-देखा, हो गयी
पर अलंघ्या एक रेखा हो गयी
सिंधु हाहाकार करता ही रहा
बादलों में चंत्रलेखा खो गयी

12
आपसे दो बात होकर रह गयी
रंग की बरसात होकर रह गयी
चाँद बदली के न बाहर आ सका
रात, काली रात होकर रह गयी

13
बात बन जाय वही बात अब बनाओ
प्राण में रहो, भले हाथ नहीं आओ
बाहुओं में न बँधे रूप बहुत इतना
मैं तुम्हें देख सकूँ और तुम लजाओ

14
शुष्क तृण-पात तो न था कोई
एक जीवन, समस्त जीवन था
तुम जिसे रौंद बढ़ गयी आगे
हाय! वह एक कुँवारा मन था

15
तुम जो दुविधा में रही प्रेम की विवशता की
तीर इस भाव से फेंका कि पार हो न सका
मैं तड़पता ही रहा पीर लिये प्राणों में
मरके भी मर न सका, हँस न सका, रो न सका

16
पुतली के अक्षर, भ्रू-चाप झुका रेखा-सा
उर-हिम-शिला पर लिखा सुख-दुख का लेखा-सा
प्रेम की समाधि-सी खड़ी हो तुम सामने
देखते हुए भी करता मैं अनदेखा-सा

17
अधरों का कहीं कोष लुटाती ही हो
नयनों का कहीं स्नेह चुआती ही हो
उपवन में हमारे भी खिला दो न कभी
आख़िर तो कहीं फूल खिलाती ही हो

18
खो गयी तुम जगत के रेले में
यों तड़पता हूँ मैं अकेले में
अपने माता-पिता से छूटा हुआ
जैसे बालक हो कोई मेले में

19
मेघ को दामिनी बुलाती है
चाँदनी चाँद के सँग जाती है
मिल रही है लहर लहर के साथ
याद मेरी न तुम्हें आती है?

20
तन, प्राण, नयन घेर लिये हैं तुमने
निज पर बड़े अँधेर किये हैं तुमने
वह गंध कभी फिर न सकेगी मन से
माना कि सुमन फेर दिये हैं तुमने

21
धूल में फूल खिला करते हैं
डाल पर शूल हिला करते हैं
अन्य को तुम, मुझे तुम्हारी याद,
भाग्य प्रतिकूल मिला करते हैं

22
बोलना किसीसे, देख लेना किसी और को
हृदय किसीका छीन, देना किसी और को
आपकी कला थी, किंतु काल बनी प्राण की
नाव में बिठाके मुझे, खेना किसी और को

23
दृष्टि के सामने न आती हो
प्राण में किन्तु मुस्कुराती हो
इसे बिछुड़ना कहूँ या मिलना
और भी पास हुई जाती हो

24
रात के पास नया चाँद चमकता तो है
क्या हुआ एक तुनुक तेज सितारा न रहा।
हैं वही फूल, वही भ्रमर, वही मधु-गुंजार
क्या बड़ी बात हुई, मैं जो तुम्हारा न रहा!