rajrajeshwar ashok

तृतीय अंक : तृतीय दृश्य

(कलिंग का रणक्षेत्र। अशोक का शिविर। खल्‍लातक के साथ राधागुप्त का प्रवेश)
खल्‍लातक – (प्रतिहार से) क्या सम्राट्‌ अभी तक सांध्य भ्रमण से नहीं लौटे?
प्रतिहार – वे अब आते ही होंगे, देव! मैं बाहर देखता हूँ।
(प्रतिहार का प्रस्थान)
खल्‍लातक – समझ में नहीं आता, ये कलिंगवासी किस मिट्टी के बने हैं! सेना पराजित हो चुकी। गढ़ ध्वस्त हो गये। सारे चुने हुए योद्धा एक-एककर मारे गये। पर ये पराजय मानने को तैयार नहीं।
राधागुप्त – यही तो मुझे आश्चर्य है। प्रतिदिन अधकचरे नवयुवकों की ऐसी सेना, जिसे तलवार पकड़ने का भी ज्ञान नहीं, रणभूमि में उतरी चली आती है। केवल अपनी वीरता और साहस के बल पर ये नवयुवक हमारी सेना से जूझते हैं? हमारे रण-विशारद देखते के देखते रह जाते हैं और ये अपनी वीरता से युद्ध की देवी को रिझाकर हँसते-हँसते मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं। लगता है, जैसे हम कलिंग की सेना से नहीं एक-एक कलिंगवासी से लोहा ले रहे हैं।
खल्‍लातक – राधागुप्त ! इस विलंब और प्रतिरोध की भयंकरता ने सम्राट्‌ को उद्विग्न कर दिया है। यह मगध के गौरव का ही नहीं, हमारी सारी रण-नीति की सफलता-विफलता का भी प्रश्न है। कलिंग एक समस्या बन कर हमारे संमुख खड़ा हो गया है। इसे उखाड़ कर फेंकना ही होगा।
(प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – सम्राट्‌ आ रहे हैं।
(अशोक का प्रवेश)
अशोक – कहिए, महामात्य! कलिंग-नरेश का कोई पत्र आया है? सेनापति मौन क्‍यों हैं? अभी तो धरती की पूर्वी सीमा दूर है। मगध-सेना के पाँवों में शिथिलता के लक्षण क्यों दिखायी पड़ने लगे?

खल्‍लातक – सम्राट्‌! मगध-सेना के उत्साह और साहस में कमी नहीं आयी है, परंतु कलिंग का बच्चा-बच्चा तलवार लेकर युद्ध के मैदान में उतर पड़ा है। जितने मरते हैं उससे दुगुने आ खड़े होते हैं। हमारे यहाँ शत्रु के घायल और वंदी सैनिकों की संख्या ही लाखों में पहुँच गयी है।

अशोक – ओह! ऐसे हठी और नासमझ देश के निवासियों के लिए किसी भी दया और उदारता की आवश्यता नहीं। कलिंग का साहस भंग किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। राधागुप्त! घोषणा कर दो कि कल से मगध-सेना से युद्ध करनेवाला प्रत्येक सैनिक राजद्रोही समझा जायगा और उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। जैसे भी हो इस गत्यवरोध को समाप्त करना ही होगा। मैं मगध के प्रत्येक सैनिक के पाँव में पंख बाँध देना चाहता हूँ ताकि वह किसी एक स्थान पर ही उलझकर न रह जाय। झंझा के अप्रतिहत प्रवाह के समान निरंतर बढ़ता जाय। कलिंग को मैं अपना अंतिम युद्धक्षेत्र नहीं बनाना चाहता, राधागुप्त!

राधागुप्त – मैं लज्जित हूँ, सम्राट! कल संध्या के पूर्व कलिंग-युद्ध का वारा-न्यारा होकर रहेगा अन्यथा मैं सम्राट्‌ को मुँह न दिखाऊँगा।
(प्रस्थान)

अशोक – महामात्य, शासनकी बागडोर संभाले मुझे आठ वर्ष हो गये। समय विद्युत-गति से भागा जा रहा है परंतु धरती का तो अंत ही नहीं दिखाई देता। मुझे भय है कि मेरा सपना पूरा होने से पूर्व कहीं मेरी तलवार की पकड़ ही न ढीली पड़ जाय।

खल्लातक – इतने अल्प समय में सम्राट्‌ ने जो पराक्रम दिखाया है तथा जितने देशों पर विजय पायी है, वह इतिहास में अमर रहेगी।

अशोक – संसार का इतिहास जब लिखा जायगा तो मेरी अब तक की विजय-गाथाओं को संभवतः आधा पृष्ठ भी नहीं मिलेगा, महामात्य! परंतु अभी तो उस पर विचार करना ही व्यर्थ है। एक बार की पराजय भी जीवन भर की समस्त विजयों पर पानी फेर दे सकती है। मेरा मन इधर कुछ आशंकित और अस्वस्थ हो रहा है।

खल्लातक – सम्राट्‌ को अपने सेनापतियों पर विश्वास रखना चाहिए। मगध की सेना अभी तक अजेय प्रमाणित हुई है, देव!
अशोक – नहीं, नहीं! ये मेरी चिंता के कारण नहीं। सच्चे वीरों को जीवन और मरण, जय और पराजय, ये सब चिंताएँ नहीं सताया करतीं। मैं पलायन से डरता हूँ।

खल्लातक – ईश्वर न करे, सम्राट्‌ के किसी भी सैनिक के हृदय में ऐसा गर्हित विचार आये।

अशोक – मैं शत्रु से पलायन की बात नहीं करता, महामात्य! वह तो मेरे जीते-जी असंभव है। मुझे अपने से ही डर लगने लगा है। यदि मैं ही अपने आप से पलायन करूँ तो? इस युद्ध को एकाएक स्थगित कर दूँ, तो!

खल्लातक – मैं समझ नहीं सका। क्या सम्राट्‌ लौटना चाहते हैं?

अशोक – ज्वार के पूरा चढ़ने के पूर्व महासागर का प्रवाह लौटा नहीं करता, महामात्य! चिंतित न हों। मैं तो अपने हृदय का एक दुर्बल विचार आपके सम्मुख रख रहा था। आज युद्ध-क्षेत्र में मैंने कच्ची अवस्था के अनाड़ी सैनिकों को कलिंग की ओर से लड़ते देखा तो मेरे हृदय में धुकधुकी-सी होने लगी। वैसी ही धुकधुकी जैसी बलिदान के लिये आये हुये पतंगों को देख कर दीपक के हृदय में होती है। मुझे कलिंग-नरेश की झूठी अकड़ पर रोष भी आया जो अपने सारे राष्ट्र को मृत्यु के मुँह में भेजना चाहता है। मुझे उन दुधमुहे सैनिकों पर दया आने लगी जो केवल अपने रक्त के फव्वारों से ही हमारी विजय-लालसा को शांत कर देना चाहते हैं। परंतु मैं सँभल गया, महामात्य! मैंने शीघ्र ही इस दुर्बल विचार को पैरों से रौंद डाला।

खल्लातक – सम्राट्‌ का प्रत्येक विचार किसी न किसी दैवी प्रेरणा का सूचक होता है। मुझे भी आज का नर-संहार हृदय-वेधक प्रतीत होता था।

अशोक – आपको भी, महामात्य! आपको भी! नहीं, नहीं, यह दुर्बलता है, भीरुता है। इसको जीतना ही होगा। इसको जीते बिना हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे। मैं तो अब इसकी ओर मुँह भी नहीं फेरना चाहता। हमें प्रशांत सागर के वक्ष-स्थल को चीरकर धरती की पूर्वी सीमा तक पहुँचना है, हिमालय को लॉघ कर उत्तरी ध्रुव के प्रदेशों तक एक साम्राज्य खड़ा करना है। यह कलिंग मेरे पाँवों की वेड़ी नहीं वन सकता। आप फिर से मेरा आदेश सुन लें। इन उद्दंड कलिंग-वासियों को मार्ग पर लाने के लिये भयानक से भयानक नर-संहार से भी अधीर नहीं होना है। इन्हें अशोक की प्रभु-सत्ता को अस्वीकार करने का दंड मिलना ही चाहिए। दया और उदारता को मैं तक्षशिला के युद्ध में कब का तिलॉजलि दे चुका। जिस समय मैं मृत्यु के मुँह में था, दया और उदारता ने मेरी कोई सहायता नहीं की । आप चुप क्‍यों हैं, महामात्य? क्या आप भी मेरा साथ छोड़ देना चाहते हैं? मैं जानता हूँ, जानता हूँ, मेरे इस प्रचंड उत्ताप से भयभीत होकर ही प्राणवल्लभा देवी मुझसे बिदा माँग कर आश्रम-वासिनी हो रही है। पुत्र महेन्द्र और बेटी संघमित्रा भी मुझसे विमुख हैं, नहीं, मन-ही-मन घृणा करते हैं। परंतु मुझ अब उनकी चिंता नहीं। किसीकी चिंता नहीं, महामात्य! मुझे विजय चाहिए, कलिंग चाहिए। मैं उसको लेकर ही रहूँगा, चाहे रक्त का सागर ही क्यों न उमड़ पड़े। जाइए, आप जाइए, महामात्य! मैं विश्राम चाहता हूँ।
(महामात्य का प्रस्थान। अंधकार हो जाता है ।)
(अशोक स्वप्न देखता है।)
(सम्राट्‌ विंदुसार, शकरानी, सुसीम तथा अन्य राजकुमारों की छायाकृतियाँ एक-एककर एक ओर से आती हैं और दूसरी ओर चली जाती हैं। नेपथ्य में क्रंदन की ध्वनि। पर्दे पर राजाओं की छायामूर्तियाँ जंजीरों में बँधी, सैनिकों के घेरे में जाती हुईं दिखायी पड़ती हैं। अंत में स्त्रियाँ और बालक, सिर झुकाये, सैनिकों से घिरे वंदी-रूप में जाते दिखायी देते हैं। अशोक चौंककर जाग उठता है)
अशोक – (जोर से) प्रतिहार ! प्रतिहार !
(प्रतिहार)
प्रतिहार – (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो।
अशोक – (स्थिर होते हुये) कोई बात नहीं है। तुम बाहर जाओ, ठहरो, जाकर महामात्य को भेज दो।

प्रतिहार – जैसी आज्ञा, सम्राट!
(जाता है)

अशोक – ओह! कितना भयानक स्वप्न था! जैसे शकरानी और सुसीम मेरी हँसी उड़ा रहे थे। मैं मानवता का हत्यारा! मेरे कारण मगध के लाड़ले सपूतों की हड्डियाँ विदेशी रणक्षेत्रों में सड़ रही हैं। लाखों स्त्रियों का सुहाग-सिंदूर धुलकर गंगा-यमुना के जल को लाल कर रहा हैं। सहन नहीं होती, सहन नहीं होती, महाराज विदुसार की वे जलभरी आँखें, मैं रक्त-पिशाच ! हत्यारा! मानवता का शत्रु! ओह! ओह!
(तकिये पर गिरता है)

(खल्लातक का प्रवेश)
खल्लातक – सम्राट! सम्राट!

अशोक – महामात्य! मेरा जी ठीक नहीं है। सबेरे ही युद्ध-परिषद्‌ की विशेष बैठक बुलायी जाय। मैं इन दया और उदारता की भावनाओं को सदा के लिये समाप्त कर देना चाहतः हूँ।
खल्लातक – जैसी आज्ञा, सम्राट्‌! जैसी…आज्ञा…।

(खल्लातक का प्रस्थान)