rajrajeshwar ashok

तृतीय अंक : चतुर्थ दृश्य

(कलिंग का रणक्षेत्र)

(एक ओर से बुद्धिसेन और दूसरी ओर से एक सैनिक का प्रवेश)

बुद्धिसेन – कहो भाई, युद्ध का क्या समाचार है? अब तो मेरा भी जी युद्ध की अगली पंक्ति में रहने को करता है।

सैनिक – मैं समझता हूँ, शीघ्र ही आप लोगों को ही युद्ध की अगली पंक्तियों पर जाना होगा।

बुद्धिसेन – ऐसा क्‍यों भला?

सैनिक – हम लोग सैनिक हैं, वधिक नहीं कि भेड़ें पंक्तियों में खड़ी हो गयीं और उनके सिर उड़ा दिये। आपने नहीं सुना कि कलिंग की ओर से स्त्रियाँ और बच्चे मैदान में आ रहे हैं।
बुद्धिसेन – सुना तो अवश्य है, परंतु मैं तो समझता था कि तुम लोगों को प्रसन्नता होगी कि प्राण जाने का भय कम हुआ। मैं तो, भाई! युद्धक्षेत्र में यही बात सबसे आपत्तिजनक समझता हूँ। शेष तो सब आनन्द ही आनन्द है, खाने का, पीने का, पहनने का। कहाँ तो साधारण मगधवासी को भोजन भी पूरा नहीं मिल पाता और कहाँ यहाँ नित्य मदिरा, मीन, मीनाक्षी! मैं तो, भाई! अब सम्राट्‌ से कहकर सेना में ही कोई महत्त्व का पद ले लूँगा। श्री निकेतन के स्थान पर सम्राट मुझे प्रधान सेनापति बनाना भी चाहते हैं। तुम चाहो तो मैं तुम्हें भी प्रधान सेनापति बनने के बाद कोई ऊँचा पद दे दूँगा परंतु उसके लिये कुछ त्याग करना होगा।

सैनिक – कैसा त्याग?

बुद्धिसेन – अब यही कि जितना अतिरिकत्त वेतन तुम्हें मिलेगा उसका अर्धांश मुझे चुपचाप दे देना होगा।

सैनिक – इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है! आप प्रसन्नता से बढ़े हुये वेतन का आधा भाग प्रतिमास ले सकते हैं।

बुद्धिसेन – क्या तुम अन्य सैनिकों को भी इसके लिये राजी कर सकते हो?

सैनिक – अवश्य, अवश्य । इसके लिये भला कौन सैनिक तैयार नहीं होगा!

बुद्धिसेन – अच्छा ठहरो, इस समय यहाँ मोर्चे पर कितने सैनिक होंगे जो मेरे सेनापतित्व में कलिंग-विजय करनेवाले हैं।

सैनिक – यही कोई तीन लाख।

बुद्धिसेन – क्या कहा! तीन लाख!

सैनिक – इसके अधिक ही हो सकते हैं, कम नहीं।

बुद्धिसेन – यदि प्रत्येक सैनिक की पद-वृद्धि से महीने में एक सौ मुद्राओं की वृद्धि भी हुई तो पचास मुद्राएँ प्रति सैनिक से प्रतिमास मुझे मिलेंगी। तीन लाख गुने पचास मुद्राएँ प्रतिमास तो एक वर्ष में कितनी मुद्राएँ हुई? नहीं, एक साथ ही 20 वर्ष का लाभ क्यों न जोड़ लूँ! ओह! इतना बड़ा गणित तो मेरे पितृदेव भी नहीं कर सकते थे। फिर वही गणित की दुर्बलता मेरे मार्ग में कंटक बन रही है। गणित के आचार्य ने कितना कहा था कि बेटा गणित का अभ्यास कर ले, बड़े काम की चीज है, परंतु मुझे मुद्रक और शूद्रक की चोटियाँ आपस में बाँधने से अवकाश मिलता, तब तो । और वे मूर्ख भी इतनी मोटी और गाय की पूँछ-सी लंबी चोटियाँ रखते थे कि बाँधे बिना चैन ही नहीं मिलता था। (आकाश की ओर हाथ उठाकर) हे महान गणितज्ञ आर्यभट्ट की आत्मा! नहीं, आत्माओ, क्योंकि इतने बड़े गणितज्ञ की एक ही आत्मा कैसे हो सकती है, मेरी सहायता करो। मेरा गणित बैठा दो। पचास लाख, गुणे तीन सौ, गुणे बारह, गुणे बीस, (सैनिक से) क्‍यों जी, ठीक है न! तीन लाख सिपाही पचास रुपयों के हिसाब से प्रतिमाह दें तो बीस वर्ष में कितनी मुद्रायें हुईं; यही न! हे आर्यभट्ट की आत्माओ! मैं तुम्हें इस गणित को बैठाने का प्रति लक्ष मुद्रा पर एक मुद्रा पुरस्कार दूँगा। परंतु सैनिक-कुल-कमल-दिवाकर ! यह तो बताओ, इतनी मुद्राएँ प्रतिमास यहाँ से मगध भेजूँगा कैसे ? वहाँ तो रखने का प्रबंध हो जायगा।

सैनिक – (आश्चर्य से) परंतु आर्य! क्या आप समझते हैं, कलिंग का युद्ध बीस वर्ष तक चलेगा?

बुद्धिसेन – बीस वर्ष क्यों, दो सौ वर्ष चल सकता है। जितने दिन चलेगा मुझे तो लाभ ही है। और जब सेनापति मैं रहूँगा तो युद्ध का बंद होना तो मेरी इच्छा पर ही निर्भर करेगा। मैं अपने हाथों से अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्‍यों मारने लगा! जब उधर से स्त्रियाँ लड़ने को आ रही हैं तो पीढ़ी दर पीढ़ी भी चल सकता है। लड़ने के स्थान पर स्त्रियों से विवाह कर लिया जाय तो प्रति वर्ष सैनिकों की संख्या दुगुनी होती जायगी। इस दृष्टि से विचार करने से तो मेरा लाभ भी प्रतिवर्ष दुगुना होता जायगा। परंतु, फिर वही गणित की दुर्बलता मेरा काल हो रही है।

सैनिक – (नहीं समझते हुए) सुना है, भिक्षुओं की एक बहुत बड़ी सेना कलिंग की ओर से बढ़ी आ रही है। यह भी सुना है कि उसके पास अहिंसा नामक कोई गुप्त अस्त्र है जिसके प्रतिकार का विचार करने के लिये आज युद्ध-परिषद की विशेष बैठक हो रही है। मैं तो उधर ही चलता हूँ।

बुद्धिसेन – हाँ! हाँ! तुम जाओ, तब तक मैं अपना गणित बैठवाता हूँ। उन भिक्षुओं से भी तो स्वर्ण-मुद्राओं की प्राप्ति होगी। जाओ, मैं भी चला।

(सब जाते हैं)