rajrajeshwar ashok

तृतीय अंक : पंचम दृश्य

(कलिंग के रणक्षेत्र में अशोक की राजसभा की बैठक हो रही है)

अशोक – मगध-साम्राज्य के कर्णधारो! आज की यह सभा एक ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करने को बुलायी गयी है जिस पर न केवल मौर्य-साम्राज्य का भविष्य अवलंबित है, वरन्‌ सारी मानवता का भविष्य निर्भर करता है। एक ओर जहाँ बीती हुईं हजारों पीढ़ियाँ हमारी ओर टकटकी लगाये हैं, वहाँ अनागत भविष्य भी आज की इस युद्ध-परिषद की ओर आँखें फाड़े देख रहा है। प्रश्न हिंसा और अहिंसा का नहीं है क्योंकि सभ्य संसार का कोई प्राणी स्वभावतः हिंसा का उपासक नहीं हो सकता। प्रश्न साध्य और साधन का है। विश्व-साम्राज्य की स्थापना तलवार से हो सकती है अथवा प्रेम से। कलिंग का युद्ध आपके सम्मुख है। प्रश्न यह नहीं है कि इसका परिणाम क्या आनेवाला है, प्रश्न यह है कि इस प्रकार जो भी परिणाम आयेंगे, उनका विश्व-सम्राज्य में या विश्व-शांति में क्या उपयोग हो सकता है। इसके पूर्व कि मैं अपने मन की उलझन आपको बताऊँ, मैं आपके विचार जानना चाहूँगा। ध्यान रहे कि जो भी विचार यहाँ रखे जायँगे, उनके लिए किसीको भी किसी प्रकार का भय या संकोच करने की आवश्यकता नहीं है।

राधागुप्त – सम्राट्‌ की आज्ञा से मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।

अशोक – अवश्य कहो, राधागुप्त! तुम्हारी बातों का मेरी दृष्टि में विशेष मूल्य है।

राधागुप्त – सम्राट! मैं समझता हूँ, कलिंग के युद्ध को देखकर कोई हृदयवान मनुष्य नहीं कहेगा कि ग्रह विश्व-बंधुत्व का मार्ग है। पवित्र आदर्श के लिए पवित्र साधनों का होना आवश्यक है।
(आवेश से) राधागुप्त! क्या तुम यह कहना चाहते हो कि मगध-सेना आतताइयों की सेना है?

राधागुप्त – निहत्थे संन्यासियों पर तथा बालक और स्त्रियों पर शस्त्र चलानेवालों की वीरता की मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। महामात्य! क्षमा करें।

अशोक – मैंने विचार की स्वतंत्रता दी है, आवेश-की तथा निराधार आरोपों की नहीं। राधागुप्त, तुम्हें अपनी बात की सत्यता – प्रमाणित करनी होगी। अशोक किसी भी अवस्था में किसी सैनिक को बालक, स्त्री या संन्यासी पर हाथ उठाने की आज्ञा नहीं दे सकता।

राधागुप्त – मैं सम्राट्‌ को यह सूचना देना चाहता था कि कल से हमारी सेना का युद्ध कलिंग के सैनिकों से नहीं, उनकी स्त्रियों और बच्चों से हो रहा है।

अशोक – क्या कहा! क्या हमारी सेना कलिंग की स्त्रियों और बच्चों का संहार कर रही है?

(सहसा नालंदा के महास्थविर उपगुप्त का प्रवेश)

उपगुप्त – नहीं, सम्राट्‌! स्त्रियों और बच्चों के प्राण-हरण के पूर्व मगध-सैनिकों को उन दस हजार बौद्ध-भिक्षुओं के प्राण लेने होंगे जो दीवाल बनकर कलिंग की इस नयी निहत्थी सेना और मगध की आगे बढ़ती हुई सुसज्जित रण-वाहिनी के बीच खड़े हो गये हैं। दस हजार की इस पहली सेना के समाप्त हो जाने पर बीस हजार भिक्षुओं की दूसरी टोली तैयार खड़ी है।

अशोक – क्या भिक्षु-संघ ने विद्रोह किया है?

उपगुप्त – नहीं सम्राट्‌! आज तक भिक्षु-संघ आपके विजय-अभियान के नाम पर होने वाले नरमेध को देशभक्ति के मिथ्या अभिमानवंश सहन करता आया है। उसकी, एकमात्र प्रार्थना यही रही है कि ईश्वर आपको सबूबुद्धि दे। परंतु निहत्थे बालकों पर और स्त्रियों पर शस्त्र-प्रहार हो और भिक्षु-संघ प्रार्थना में लीन रहे, यह नहीं हो सकता। एक अहिंसक व्यक्ति के पास आत्म-बलिदान से बढ़कर कौन-सा अंतिम शस्त्र हो सकता है! प्रत्येक भिक्षु, सम्राट के सैनिकों की युद्ध-लिप्सा शांत करने को अपने प्राणों की भेंट लेकर युद्ध-भूमि में उतर पड़ा है। सत्य उसकी तलवार है और अहिंसा उसकी ढाल। शायद इनसे श्रेष्ठ अस्त्र सम्राट्‌ के शस्त्रागार में नहीं हैं।

अशोक – (मंत्राविष्ट-सा) सत्य, अहिंसा-सत्य, अहिंसा- नहीं, नहीं, यह सब छलनी है। आचार्य उपगुप्त! आप राजद्रोह कर रहे हैं।
उपगुप्त – राजद्रोह आत्मद्रोह से बहुत अच्छा है, सम्राट!

अशोक – आत्मद्रोह! आत्मद्रोह! क्या मैं आत्मद्रोही हूँ? आपके शब्दों में मंत्र की शक्ति है। परंतु अशोक का निश्चय इतना दुर्बल नहीं है, आचार्य! मैं आपको आदेश देता हूँ कि आप मेरे मार्ग से हट जायँ, अन्यथा…

उपगुप्त – मैं हटने को नहीं आत्म-बलिदान द्वारा सम्राट्‌ की न्यायनिष्ठा को जागृत करने आया हूँ। सम्राट्‌ मेरे प्राण लेकर ही मुझे यहाँ से हटा सकते हैं।

(सहसा दो सैनिकों का एक कपड़े से ढँका हुआ थाल लिये हुए प्रवेश)

एक सैनिक – सम्राट्‌ की जय हो! पाटलिपुत्र के नगर-रक्षक चंडगिरि की आज्ञा से यह उपहार लेकर हम सम्राट्‌ की सेवा में आये हैं। नगर-रक्षक ने इसे प्राप्त वकरने के प्रयत्न में अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।

अशोक – उपहार प्रस्तुत किया जाय।

(सैनिक थाल का पर्दा उठाते हैं। वीतशोक का मस्तक थाल में रखा दिखाई पड़ता है)

अशोक – यह क्या है? मूखों! यह तो मेरे प्यारे भाई वीतशोक का मस्तक है? ओह! उसे किसने मारा? महामात्य! इन्हें वंदी कर लें।

खल्लातक – जैसी आज्ञा
दूसरा सैनिक – सम्राट! हमें प्राणों की भीख मिले! चंडगिरि ने कहा था कि इससे सम्राट्‌ प्रसन्‍न होंगे इसी लिये हमने ऐसा किया। हमारा आर्य वीतशोक को मारने में कोई हाथ नहीं है। हम निरपराध हैं।

(अशोक को साश्रुनयन देखकर)

उपगुप्त – सम्राट्‌! हिंसा और प्रतिशोध का कहीं अंत नहीं है। कलिंगवासियों को भी अपने स्वजन और बंधु इतने ही प्रिय लगते होंगे। चंडगिरि ने तो बैर के बस होकर ऐसा कार्य किया है। आप चाहें तो क्षमा का मार्ग अपनाकर इस दुष्ट-चक्र का अंत कर सकते हैं।

नहिं बेरेण बेराणि सम्मंतीध कदाचन।
अबेरेण हि सम्मंती ऐसो धम्मो सनंतनो।।

अशोक – (विक्षिप्त-सा) वीतशोक! वीतशोक! प्यारे भाई, ओह!महामात्य? इस नरमेध को बंद करो। निहत्थे बालकों, स्त्रियों और संन्यासियों का वध करके मैं कलिंग तो क्या स्वर्ग का राज्य भी नहीं लूँगा। आचार्य ठीक कहते हैं। विश्व-राज्य की स्थापना भगवान्‌ बुद्ध के करुणा और मैत्री के मार्ग से ही हो सकती है। कल से मेरा भन पुकार-पुकारंकर यही कह रहा था, परंतु मिथ्या अभिमान और मोह ने मेरे मुँह पर ताला जड़ रक्खा था। आज की युद्ध-परिषद्‌ भी मैंने इसी उद्देश्य से बुलायी थी कि कोई तो मेरे सभासदों में ऐसा सहृदय निकलेगा जो मेरे मन की बात कह देगा। (राधागुप्त से) तुम सच्चे मित्र हो, राधागुप्त! परंतु कलिंग की ओर से स्त्रियाँ और बालक युद्ध में उतर आये और तुमने मगध सैनिकों को उनसे लड़ने के लिए भेज दिया, यह कैसी वीरता थी! (उपगुप्त से) मैं आचार्य की वंदना करता हूँ जिन्होंने एक भूले हुए को मार्ग बताया। (खल्लातक से) महामात्य! शीघ्र युद्ध-स्थगन का आदेश दे दिया जाय और मगध-सेना के घर की ओर लौटने का प्रबंध किया जाय। कलिंग-नरेश से कहला दिया जाय कि अशोक ने सदा के लिये अपनी रक्‍त-रंजित तलवार को कोषस्थ कर लिया है। मैं उनसे बराबरी के पद पर मैत्री और बंधुत्व की याचना करता हूँ। (उपगुप्त से) और आचार्य! अब से यह जीवन आपको समर्पित है। मुझे भी ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्म शरणं गच्छामि, संघं (रण गच्छामि” का महामंत्र दीजिये।
उपगुप्त – सम्राट्‌! आपकी शांति भी आपकी विजयों के समान ही महान होगी। आप देखेंगे कि शांति और अहिंसा के संदेश से भारत ही नहीं विश्व के समस्त राष्ट्रों में आपकी कीर्ति कितनी शीघ्र फैलती है। भगवान्‌ आपको चिरायु करें।

बुद्धं शरणं गच्छामि
धर्म शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि

(सब लोग दुहराते हैं।)
(पटाक्षेप)