rajrajeshwar ashok
द्वितीय अंकः तृतीय दृश्य
(मगध का रणक्षेत्र)
बुद्धिसेन – (तलवार हाथ में लिये बुद्धिसेन का प्रवेश। दूर पर आते हुए राजवैद्य को देखकर)
हाँ, अब कौन मुझे वीर नहीं कहेगा? शत्रु की सारी सेना भाग गयी। जो नहीं भागी वह गंगा में कूद गयी। जो गंगा में नहीं कूदी उसे मगर ने खा लिया। जिसे मगर ने नहीं खाया उसे मैंने खा डाला। मैंने खा डाला, छिः छिः मैं क्या नरभक्षी हूँ? मैंने मार डाला कहना चाहिए। यह रक्तसनी तलवार देखकर भी अब कोई संदेह करेगा?
(वैद्यराज का प्रवेश)
बुद्धिसेन – नमस्कार वैद्यराज, यहाँ रणभूमि में क्या मुर्दो को च्यवनप्राश खिलाने आये हैं?
राजवैद्य – मैं तुम्हें ही ढूँढ़ रहा था, बुद्धिसेन! मेरी रक्षा करो। सम्राट् अशोक से मुझे प्राणों की भीख दिलवाओ। वह कुष्टवाली बात! बुद्धिसेन! मुझे बचाओ।
बुद्धिसेन – आप तो स्वयं मरते हुओं को प्राणदान देते हैं, वैद्यराज! इतना डरते क्यों हैं? आधा तोला द्राक्षासव का सेवन कर लें तो सूली पुष्प-शय्या के समान दिखाई देगी।
राजवैद्य – विनोद न करो, बुद्धिसेन! मेरी पाँचवीं पत्नी अभी निरी अबोध है। कोई उसकी देखभाल करनेवाला नहीं।
बुद्धिसेन – मेरे होते हुए आप उसकी चिंता क्यों करते हैं, महाराज! आप प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन कीजिए।
राजवैद्य – तुम्हें विनोद सूझता है, यहाँ जान पर बनी है। सामने सूली खड़ी है। कच्चे सूत में बँधी तलवार मेरे सिर पर लटक रही है। बुद्धिसेन! मुझे बचाओ, पानी में गिरे शर्कराट के समान जीवन शून्य में विलीन होना चाहता है। बहुमूल्य रसायनों से पोषित यह काया क्षार हो जायगी, बुद्धिसेन!
बुद्धिसेन – होने दीजिए वैद्यराज! आपके स्वागत में स्वर्ग की अप्सराएँ हाथों में फूलों की माला लिये खड़ी हैं। यहाँ तो आपने केवल पाँच ही विवाह किये हैं, वहाँ पाँच सौ से कम स्त्रियाँ नहीं मिलेंगी। ऐसा स्वर्णिम अवसर कभी छोड़ा जाता है! कस्तूरी-बटी हाथ में लेकर चढ़ जाइए सूली पर।
राजवैद्य -ऐसा मत कहो, बुद्धिसेन! तुम्हें जीवन भर निर्मूल्य औषधि खिलाऊँगा। शुद्ध हीरक-भस्म की गोलियाँ | सनक, सनंदन, सनातनकुमार की सौगंध, बुद्धिसेन ! तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ।
(पाँव पकड़ लेता है)
बुद्धिसेन – अरेरे! मुझे पाप का भागी न बनाइए, विप्रदेव! सम्राट् अशोक ने तो आपको कब का क्षमा कर दिया। आपके उस पत्र ने, जिसमें आपने उन्हें सर्वथा नीरोग बताया था, बड़ा काम किया। उसीके कारण तो मंत्रि-परिषद् के सदस्यों की सहानुभूति सम्राट् अशोक की ओर हो गयी थी और शकरानी की कूटिल चालों का भंडा फूटा था।
राजवैद्य – भला, मैंने ऐसा पत्र कब लिखा था?
बुद्धिसेन – वाह, वैद्यराज! मेरी स्त्री के प्रेत को भूल गये ? भला सोचिए, जब मैंने विवाह ही नहीं किया तो मेरी स्त्री कहाँ से आ गयी! और जब मेरी कोई स्त्री ही नहीं थी तो उसका प्रेत कहाँ से आता! यह आपके चरक और सुश्रुत के बाहर का विषय है।
राजवैद्य – ओह! समझा, मैं तुम्हारा बड़ा कृतज्न हूँ, बुद्धिसिन! तुमने एक ब्राह्मणी के सौभाग्य की रक्षा की है।
बुद्धिसेन – ओर आपको उसके होनेवाले पुत्रों के पिता बनने का गौरव प्रदान किया है। पत्नी के प्रताप से च्यवन ऋषि का बुढ़ापा गया और आपके प्राण बचे। अब च्यवनप्राश खिला-खिलाकर बुद्धिसेन को आशीर्वाद दीजिए। (वैद्यराज को जाते देखकर) हाँ, देखिए, निर्मूल्य औषधिवाली बात न भूलिएगा।
राजवैद्य – भगवान करे, तुम्हें कभी औषधि की आवश्यकता ही न पड़े ।
(जाते हैं)
(राधागुप्त का प्रवेश)
राधागुप्त – कौन, बुद्धिसेन! मैं तुम्हें ही ढूँढ रहा था।
बुद्धिसेन – राजवैद्य बुद्धिसेन को रणभूमि में ढूँढ़ते हैं, राधागुप्त बुद्धिसिन को रणभूमि में ढूँढ़ते हैं। अब भी मेरी वीरता में कोई संदेह है! आज महा-महा वीर, शूर-कुल-शिरोमणि, शस्त्र-मार्तण्ड बुद्धिसेन का नाम सम्राट् अशोक के नाम के समान चारों दिशाओं में गूँज रहा है।
(राधागुप्त की ओर मुड़ते हुए)
क्या तुम्हें भी प्राणदान चाहिये? मैंने इसके लिए भिन्न-भिन्न पारिश्रमिक निश्चित किये हैं। प्राणरक्षा चाहते हो तो एक सहस मुद्रा और यदि पद भी चाहते हो तो दस सहमत मुद्रा और यदि…
राधागुप्त – चुप मूर्ख! यहाँ तलवार हाथ में लेकर क्या कर रहा है? युद्ध तो कब का समाप्त हो चुका।
बुद्धिसेन – तुम्हें किसी की वीरता का आदर करना तो आता नहीं। सम्राट् ने थोड़ी-सी प्रशंसा क्या कर दी, फूलकर कुप्पा हो, गये। युद्ध समाप्त हो गया तो क्या? देखते नहीं अभी मैंने कितने सैनिकों का वध किया है। आज चारों दिशाएँ मेरे यश की धवलता से उद्भासित हो रही हैं।
राधागुप्त – हाँ, हाँ, उसी आलोक में तो ब्रह्मा का वाहन हंस, विष्णु का निवास-स्थान क्षीरसागर और शिव की सवारी वृषभ, तीनों लुप्त हो गये। देखो, बुद्धिसेन! सम्राट् को मानसिक शांति चाहिये। अपने परिहास से उनका जी हलका करनेका प्रयल करो।
बुद्धिसेन – परिहास! वह कार्य तो मैंने कब का छोड़ दिया । अब तो मुझे केवल मारने-काटने की बातें सूझती हैं। फिर भी तुम कहते हो तो प्रयलल कर सकता हूँ। परंतु क्या प्रयत्न करूँ? सम्राट् के सामने जाते भी अब मुझे भय लगता है। वे अशोक अब थोड़े ही हैं! फिर भी जब तक मेरे पाँवों पर मेरा कंधा है, मेरे कंधे पर मेरा सिर है, मेरे सिर में मेरा मुँह है और मेरे मुँह में मेरी जीभ है, तब तक कुछ न कुछ बोलूँगा ही। हाँ, रणभूमि में मेरी आज की अद्भुत वीरता की चर्चा सम्राट् से अवश्य कर देना।
राधागुप्त – अवश्य कर दूँगा। वचने का दरिद्रता! अच्छा चलूँ।
बुद्धिसेन – मैं भी चलता हूँ।
(दोनों जाते हैं)
(ललिता का प्रवेश)
ललिता – न जाने क्यों देवी के स्वर को सुनकर मुझे ऐसा बोध होता है जैसे मैं इस राजभवन से दूर किसी बौद्धविहारं के एकांत में पहुँच गयी हूँ। मगध की राजमहिषी के स्वर में इतना विषाद क्यों है?
देवी – यही तो मैं नहीं जानती, ललिता! मुझे प्रतिक्षण लगता है जैसे मेरी आत्मा इन विशाल राजप्राचीरों की सीमा में चारों ओर अपने आपको ढूँढ़ती फिरती है और निराशा से मणिहीन
सर्पिणी के समान सिर पटक कर रह जाती है।
ललिता – क्या सम्राट् से अनबन हो गयी? उन्होंने विषकन्यावाली बात पर कुछ कह तो नहीं दिया?
देवी – नहीं, सखि! उन्होंने तो मेरे और तुम्हारे साहस की प्रशंसा ही की।
ललिता – अच्छा! क्या कहा? नहीं, नहीं, मुझे प्रारंभ से अंत तक उस मधुउत्सव की सारी बातें बताइए, रानीजी! यदि एक भी बात छिपायी तो.
देवी – चुप, चुप, कहाँ से बात कहाँ ले गयी!
ललिता – नहीं, नहीं मैं आज सारी बातें सुनकर ही रहूँगी। आप से जब भी पूछा है तो आपने हँस कर टाल दिया है।
देवी – अच्छा, अच्छा, सुन। संध्या समय मधुबाला बनकर जब मैं राज-भवन में पहुँची तो सम्राट् पलकें मूँदे हुए कुंहनी के बल लेटे थे। मेरे नूपुरों की झनकार से वे चौंक उठे और …
(चुप हो जाती है)
ललिता – हाँ, हाँ, बोलना बंद न करें। मेरी साँस बंद होने लगती है। दुत्, पगली! उन्होंने मुस्कुराते हुये मेरी ओर देखकर कहा, “अच्छा! सम्राट् बनने पर यह दंड भी भोगना पड़ता है!” मैं तो सुनते ही लाज से मर गयी ओर मेरी आँखों से न जाने कैसे बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदें हुलकने लगीं।
ललिता – अरे रे! तब क्या हुआ?
देवी – अंब-तू बता, क्या हुआ होगा!
ललिता – मैं तो समझती हूँ आपके बहते हुए आँसुओं को देखकर स्वयं भगवान शंकर की भी योग-समाधि टूट सकती है।
देवी – सम्राट् उठे और उठकर उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा-‘तेरा मुख मुझे पहिचाना-सा लगता है।’
ललिता – अच्छा, तो क्या सम्राट् ने आपको पहिचान लिया?
देवी – नहीं। मैंने कहा, ‘देव! जन्म-जन्मांतर से मैं आपके ही चरणों में रहती आयी हूँ।!
ललिता – तब तो सम्राट् बहुत प्रसन्न हुए होंगे?
देवी – हाँ, ललिता! उन्होंने कादंब का पात्र मेरे हाथ से लेकर…
(चुप हो जाती है)
ललिता – कहिए न साम्राज्ञी! मौन क्यों हो गयीं?
देवी – ललिता! यदि मैं न जाती तो अनर्थ हो जाता। सम्राट् को जब मैंने सारी बातें कहीं तो वे बोले, ‘देवि! आर्यावर्त के सम्राट् के लिए कर्त्तव्य का यह पहला पाठ है। युद्धक्षेत्र में विजय पानेवाले इसी प्रकार अपने ही घर में हार जाते हैं।’ यही नहीं ललिता! उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे भविष्य में कभी मदिरा और मद्य-पायिनी को पास भी न फटकने देंगे।
ललिता – देवी की आँखों में अपनी प्रेयसी की छाया देखकर ही उन्होंने मद्य का पात्र ग्रहण किया होगा नहीं तो वे स्वप्न में भी युद्ध की ही बातें सोचते हैं।
देवी – तू ठीक कहती है, ललिता! यह अकारण युद्ध ही तो मेरे विषाद का कारण है, सखी! मैं नित्यप्रति की इस मारकाट से ऊब गयी हूँ। न जाने कितनी औरतों के सुहाग की कलियाँ प्रतिदिन इस झंझा-प्रवाह में धूलि-धूसरित होती होंगी।
(सहसा प्रतिहार का प्रवेश)
देवी – सम्राट् आ रहे हैं। (प्रतिहार का प्रस्थान)
ललिता – जाती हूँ महारानी।
(ललिता जाती है।)
(सम्राट् अशोक आते हैं)
अशोक – देवि! मैं कुछ दिनों के लिए तुमसे विदा माँगने आया हूँ। मुझे दक्षिण-विजय के अभियान पर जाना है।
देवी – मैं विजय की कामना करती हूँ, महाराज! परंतु…
(चुप हो जाती है)
अशोक – परंतु! क्या देवी को मगध-सेना की अजेयता में संदेह है?
देवी – नहीं, सम्राट! परंतु मैं सोचती हूँ कि जिस देश की स्वतंत्रता आप मगध के संरक्षण में लेना चाहते हैं, क्या वहाँ की राजमहिषी भी अपने पति की विजय-कामना नहीं करती होगी?
अशोक – देवि! राजा का एक चरण घर में और दूसरा युद्धक्षेत्र में रहता है। तलवार की सहायता से ही मेरे पूर्वजों ने इस विशाल मगध-साम्राज्य का निर्माण किया था और तलवार के बल पर ही इसे स्थिर रक्खा जा सकता है। राज्य की सीमा और महत्त्वाकांक्षा जितनी बढ़ाई जाय उतनी ही कम है।
देवी – सम्राट्! मुझे भी अपने साथ लेते चलें।
अशोक – एक वीर-पत्नी को ऐसी आकुलता शोभा नहीं देती, साम्राज्ञी!
देवी – नहीं सम्राट्, मैं भी युद्ध में काम करना चाहती हूँ।
अशोक – तुम? काम करोगी?
देवी – हाँ, सम्राट, मैं घायलों का उपचार करूँगी। जहाँ आप मृत्यु के दाने बिखेरते जायँगे, वहीं मैं जीवन की फसल उगाने का प्रयत्न करूँगी!
अशोक – ओह! समझा, समझा! तुम पर भी लगता है कायर, अहिंसक बौद्ध संन्यासियों का जादू चल गया है। जानती हो! मैंने उन पाखंडियों के शिरच्छेदन की आज्ञा दी है।
देवी – मुझ पर किसी का जादू नहीं चल सकता, सम्राट्! मैं बचपन से ही भगवान तथागत के शांति-मंत्रों का जप करती आयी हूँ। मैं इसके लिये सम्राट् द्वारा घोषित दंड भी सहन करने को प्रस्तुत हूँ। यह सिर आगे है, महाराज! तलवार निकालें ।
(सिर झुकाती है)
अशोक – ओह! मेरा सिर चक्कर खा रहा है। कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए क्या हृदय की प्रत्येक कोमल शिरा पाँवों में बँधी अर्गला के समान तोड़ गिरानी होती है? महारानी! महारानी!
ऐसा कठोर व्यंग्य अपने स्वामी के प्रति कोई आर्य-ललना नहीं करती।
देवी – क्षमा करें, सम्राट! आवेग में अपराध हुआ। आपको दुःखी नहीं होने दूँगी। स्त्री के लिये उसके स्वामी के उत्कर्ष से बढ़कर और कुछ नहीं है। मैं आपकी विजय-कामना करूँगी, देव! परंतु आप मुझे यहाँ अकेली मत छोड़िए। मुझे अपने इच्छानुसार किसी शांत स्थान में आवास चुनने की स्वतंत्रता दीजिए, महाराज! जहाँ मैं इस राजभवन के ऐश्वर्य से दूर एक भिक्षुणी का-सा जीवन बिता सकूँ। मैं आपसे यह भिक्षा माँगती हूँ, देव!
अशोक – रानी! उठो, तुम मगध-सम्राट् के हृदय की शासिका हो। मैं जानता हूँ, तुम्हें शकरानी की अकाल मृत्यु ने भयभीत कर दिया है और तुम अकेले राजप्रासाद में नहीं रहना चाहती। तुम कहाँ जाना चाहती हो, महारानी? क्या उज्जयिनी जाओगी?
देवी – एक बार पिता के घर से निकल कर मैं दुबारा वहाँ आश्रय के लिए नहीं जाना चाहती, सम्राट्! मुझे वेदीसागर भेज दीजिये। वहाँ की शांति अद्भुत है। मैं एक बार वहाँ रह चुकी हूँ। जब सम्राट् दिग्विजय करके लौटेंगे तब मैं वहाँ द्वार पर एक नन्हा-सा दीपक सँजोये सम्राट् की प्रतीक्षा करती हुई मिलूँगी। एक आर्य-ललना की मंगल-कामना, सदैव लौह-कवच बनकर उसके पति की रक्षा करेगी, देव!
अशोक – जाओ, रानी! मगध का राजकोष और राजशक्ति सदा तुम्हारे इंगित पर रहेंगी। सूर्य अकेला तपता है, कोल अकेला संसार का संहार करता है, और प्रभंजन अकेला ही सारी धरती का चक्कर लगाता है। मैं भी आज से अकेला ही अपने दिग्विजय के सपनों को पूर्ण करूँगा।
(जाता है)
देवी – (जोर से पुकारती है) सम्राट्! सम्राट!
(ललिता का प्रवेश)
ललिता- क्या है देवि! अरे! ये तो मूर्छित हो गयीं।
(ललिता मूर्छित देवी पर पानी के छींटे देती है)
देवी – (होश में आकर) ललिता! क्या सम्राट् गए?
ललिता – हाँ देवी! उन्हें बुलाऊँ क्या?
देवी – नहीं ललिता! वे अब देवी के मानस-मंदिर में ही रहेंगे। मेरी अच्छी सखी! चल, यहाँ से दूर, बहुत दूर वेदीसागर चलें। वहीं भगवान तथागत की पूजा करते हुए शांति से जीवन बिताएँगे।
ललिता – क्या सपनों का मंदिर इतनी शीघ्र ढह जाएगा, साम्राज्ञी ?
देवी – चुप, चुप, अब साम्राज्ञी नहीं, ललिता! मेरे स्वप्नों का मंदिर ढहा नहीं है, सखी! वह अनंत काल के लिये मेरे प्राणों में समा गया है। उसमें रहनेवाला देवता, जो पथ भूलकर कहीं
बाहर चला गया है, फिर उसमें लौटकर आएगा। तब तक मैं उसकी स्मृति की पूजा करूँगी। चल, यहाँ से चलें । मुझे अब यह राजप्रासाद काटे खाता है। हाँ, देख, चूड़ी और सिंदूर की डब्बी को छोड़कर मेरे सारे आभूषण कोषाध्यक्ष को देती आ! मुझे अब उनकी आवश्यकता नहीं है।
(ललिता एक ओर और देवी दूसरी ओर जाती है)