ravindranath:Hindi ke darpan me
आवर्तन
धूप आपनारे मिलाईते चाहे गंधे,
गंध से चाहे धूपेर रहिते जूड़े ।
सूर आपनारे धरा दिते चाहे छंदे
छंद फिरिया छूटे जेते चाहे सूरे
भाव पेते चाय रूपेर माझारे अंग,
रूप पेते चाय भावेर माझारे छाड़ा ।
असीम से चाहे सीमार निबिड़ संग,
सीमा चाय होते असीमेर माझे हारा
प्रलये सृजने ना जानि ए कार युक्ति,
भाव होते रूपे अविराम जाउया-आसा —
बंध फिरिते खूँजिया आपन मूक्ति,
मूक्ति माँगिछे बाँधनेर माझे बासा
धूप चाहती मिलूँ गंध से
धूप चाहती मिलूँ गंध से, गंध चाहती धूप
सुर छंदों की, छंद सुरों की, चाहें विभा अनूप
भाव रूप पाने को इच्छुक जो मोहे संसार
और रूप की चाह — भाव बन खोलूँ मन के द्वार
है असीम सीमा को आकुल, सीमा की है चाह
बनूँ असीम, अनंत, अगोचर, अटल, अकूल, अथाह
किसकी थी वह युक्ति रच दिया जिसने विश्व विराट्
प्रलय स्रजन की, स्रजन प्रलय की जोहा करते बाट
बंध ढूँढता सदा मुक्ति पाने का मिले उपाय
और मुक्ति की चाह प्रेम के बंधन में बँध जाय