ravindranath:Hindi ke darpan me

मूखपाने चेये देखि

मूखपाने चेये देखि, भय होय मने-
फिरेछो कि फेरो नाई बूझिबो केमोने ।।
आसन दियेछि पाति,
मालिका रेखेछि गाँथि,
बिफल होलो कि ताहा भावि खने खने ।।
गोधूलि लगने पाखि फिरे आसे नीड़े,
धाने भरा तरिखानि घाटे एसे भिड़े ।।
आजो कि खोँजार शेषे
फेरो नि आपन देशे ।
विरामबिहीन तृषा जले कि नयने ।।

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मुख की छवि तो देखूँ
मुख की छवि तो देखूँ
मुक्ति हो भय से
आये कि न आये, बूझूँ यह कैसे !
आसन बिछा दिया है,
हार भी सजा लिया है
विफल हो न यह सारा, मन डोले संशय से
साँझ ढले पंछी नीड़ों में फिर आये
घाट पर लगीं आकर धानभरी नौकाएँ
आज पूरे भी हुए सपने
फिरो न देश अपने
विराम-विहीन तृष्णा गयी न हृदय से
मुख की छवि तो देखूँ
मुक्ति हो भय से
आये कि न आये, बूझूँ यह कैसे !

मुखछवि देखी आज तुम्हारी

मुखछवि देखी आज तुम्हारी, मन ही मन अकुलाऊँ
तुम आये या दिवास्वप्न है, यह भी समझ न पाऊँ

बड़े भाग पाहुन घर आये आसन नया बिछाया
अरमानों की माला गूँथी सारा साज सजाया

सब कुछ व्यर्थ हुआ-सा लगता, भय से अश्रु बहाऊँ
तुम आये या दिवास्वप्न है, यह भी समझ न पाऊँ

साँझ ढले नीड़ों को आतुर पंछी पंख पसारे
धानभरी नौकाएँ लौटीं, आकर लगी किनारे

तृष्णा का तो अंत नहीं, किस अन्वेषण में अटके !
बहुत हुआ ओ परदेशी, आओ निज देश पलट के

जीवन पल-पल बीत रहा, कैसे तुमको समझाऊँ !
तुम आये या दिवास्वप्न है, यह भी समझ न पाऊँ

(प्रतिभा खंडेलवाल )