ravindranath:Hindi ke darpan me

शाहजहाँ

ए कथा जानिते तुमि भारत-ईश्वर शाहजहान,
काल श्रोते भेसे जाय जीवन यौवन धनमान ।
शुधू तव अन्तरवेदना
चिरन्तन होए थाक, सम्राटेर छिलो ए साधना ।
राजशक्ति वज्रसूकठिन
संध्या रक्तरागसम तंद्रातले होय होक लीन
केवल एकटी दीर्घश्वास
नित्य-उच्छ्वसित होय सकरूण करूक आकाश,
एई तव मने छिलो आश ।
हीरामुक्तामाणिक्येर घटा
येन शून्य दिगंतेर इंद्रजाल इंद्रधनूछटा
याय यदि लुप्त होय याक,
शुधू थाक
ऐक विंदू नयनेर जल
कालेर कपोलतले शूभ्र समूज्ज्वल
ए ताजमहल ।।

हाय उरे मानवहृदय,
बार बार
कारों पाने फिरे चाहिबार
नाई ये समय,
नाई नाई ।

शाहजहाँ

जानते थे तुम भलीभाँति यह शाहजहाँ
प्रेमी-हृदय हे भारत-सम्राट् !
काल-स्रोत में ठहर न पाते यहाँ
धन-मान, जीवन-यौवन के ठाट-बाट
तो भी अपने प्रेमाकुल हृदय की व्यथा
रखने को चिरंतन तुमने किया बहुत तप था
राज्य-शक्ति वज्र-सी कठिन
शून्य में विलीन हो भले ही सांध्य मेघों-सी चमककर चार दिन
फिर भी था तुम्हारा यह प्रयास
केवल एक तुम्हारा नि:श्वास
सदा उच्छ्वसित हो बनाता रहे शोकमय समग्र दिशाकाश |
मन में थी सँजोई यही आश
हीरे-मोती-माणिकों की घटा
चमकाकर नभ में क्षणिक इन्द्रधनु-छटा
हो भी यदि लुप्त तो हो जाय, दुख नहीं
रहे बस वहीं का वहीं होकर अचल
काल के कपोल पर गया जो ढल
एक विन्दु अश्रुजल
शुभ्र, समुज्ज्वल
यह ताजमहल

हाय रे मानव-हृदय !
देखना जो चाहे कोई फिर-फिरकर बारबार
इसका नहीं है समय
नहीं कभी, नहीं कभी

जीवनेर खर श्रोते भासिछे सदाई
भूवनेर घाटे घाटे —-
एक हाटे लउ बोझा, शून्य करे दाऊ अन्य हाटे ।
दक्षिणेर मन्त्रगुन्जरणे
तव कुंजवने
वसंतेर माधवीमंजरी
येई क्षणे देय भरि
मालान्चेर चंचल अंचल
विदाय गोधूली आसे धूलाय छड़ाय छिन्न दल ।
समय ये नाई
आबार शिशिररात्रे ताई
निकुंजे फूटाये तोल नव कून्दराजि
साजाइते हेमंतेर अश्रुभरा आनंदेर साजि
हाय रे हृदय
तोमार संचय
दिनान्ते निशान्ते शुधू पथप्रान्ते फेले येते होय ।
नाई नाई, नाई ये समय ।।

हे सम्राट्, ताई तव शंकित हृदय
चेयेछिलो करिबारे समयेर हृदयहरन
सौन्दर्ये भूलाये
कंठे तार कि माला दूलाये
करिले वरण
रूपहीन मरणेर मृत्युहीन अपरूप साजे !
रहे ना ये
विलापेर अवकाश
बारो मास,

धारा में जीवन की डूबते जा रहे सभी
जग में घाट-घाट पर
बस एक हाट से उठाकर बोझ
ले जाकर पटकते उसे अन्य किसी हाट पर
दक्षिणी पवन के संचरण में
वासंती कुंजवन में
खोल निज दल को
करती हुई सुरभित लताओं के अंचल को
फूली जो माधवी मंजरी
नष्ट उसे करती शीघ्र ग्रीष्मपवन धूल से भरी
इतना भी नहीं है समय
करने वसंत का श्रृंगार
रोक सके हँसते हुए फूलों का विलय
फिर से निकुंज में खिला दे श्वेत कुंद कुसुम
फिर से नयी छवि से सजा दे वन के लता-द्रुम
हाय रे मानव-हृदय !
दिन भर जो कुछ भी तुमने रक्खा हो समेट
रात के आते ही होता पल में तम की भेंट
नहीं है, नहीं है, नहीं है समय |
रख ले बचा के यहाँ करे जो संचय

इसीलिए हे सम्राट ! तुम्हारा शोकाकुल मन
काल का करने अतिक्रमण
बंद हो गया है सौंदर्य के इस मणिगृह में
देकर अरूप को भी रूप का मोहक आवरण |
इसीलिये, हे सम्राट् !
मोहित करने काल को पिन्हाया तुमने सुमन-हार
मरण के मृण्मय शरण-गृह को अमरता से दिया सँवार
देने दुखी मन को अवकाश सतत क्रंदन से

ताई तव अशांत क्रन्दने
चिर-मौन जाल दिये बेंधे दिलो कठिन बंधने !
ज्योत्स्नाराते निभृत मंदिरे
प्रेयसीर
ये नामे डाकिते धीरे धीरे
सेई काने-काने डाका रेखे गेले एईखाने
अनंतेर काने
प्रेमेर करूण कोमलता
फूटिलो ता
सौन्दर्येर पूष्पपूंज प्रशांत पाषाने ।।

हे सम्राट् कवि,
एई तव हृदयेर छवि
एई नव नव मेघदूत
अपूर्व अद्भूत
छंदेगाने
उठियाछे अलक्षेर पाने
येथा तव विरहिनी प्रिया
रयेछे मिशिया
प्रभातेर अरूण-आभासे
क्लांतसंध्या दिगंतरे करूण निश्वासे
पूर्णिमाय देहहीन चामेलीर लावण्यविलासे
भासार अतीत तीरे
कांगालनयन येथा द्वार होते आसे फिरे फिरे ।
तोमार सौंदर्यदूत यूग यूग धरि
एड़ाइया कालेर प्रहरि
चलियाछे वाक्यहारा एई वार्ता निया — ‘भूलि नाई, भूलि नाई, भूलि नाई, प्रिया !’

बाँध दिया तुमने वह विरहाकुल मन अपना
प्रस्तरों के कठोर मौन इस बंधन से
ज्योत्स्ना-निशीथ में एकांत यमुना के तीर
होकर अधीर
जब-जब तुम पुकारते थे बिछुड़ी हुई प्रेयसी को
देख कर इसे ही ढाढ़स बँधता होगा जी को
पीड़ाकुल पुकारते थे नाम जो तुम महाराज !
पुष्पपुंज-सा सुकोमल, सरस कर गया है आज
पाषाण-खण्डों को भी, जड़कर जिसे अंतर में
प्रिया को तुम्हारी जो बसी जा दूर अम्बर में
व्यथा वे तुम्हारी हैं सुनाते मौन स्वर में |

हे सम्राट्-कवि !
यह तुम्हारे अंतर की है छवि
अपूर्व, अद्भुत मेघदूत यही है तुम्हारा
चेतन बना प्रस्तरों के द्वारा
लिखा है यह काव्य तुमने
फूँककर विरही हृदय की विकल बाँसुरी को
प्रेम का सन्देश देने
बिछुड़ी हुई अपनी प्राणेश्वरी को
खो गयी है जो अरुणोदय के आभास में
सांध्य दिशाओं की करुण नीरव नि:श्वास में
पूर्णिमा में चमेली के लावण्य-विलास में
और तुम्हारी वह विरहिणी प्रिया !
ओझल जिसने निज को श्वेत पट में कर लिया
नयन युगल बंद किये
बेसुध बन तुम्हारे लिये
सुनती सन्देश जो इस मौन दूत ने दिये
‘भूला नहीं, भूला नहीं, भूला नहीं तुम्हें, प्रिये

चले गेछे तूमि आज
महाराज
राज्य तव स्वप्नसम गेछे छूटे
सिंहासन गेछे टूटे
तव सैन्यदल
यादेर चरणभरे धरणी करितो टलमल
ताहादेर स्मृति आज वायूभरे
उड़े जाय दिल्लिर पथेर धूलि-‘परे ।
वन्दीरा गाये ना गान
यमूना कल्लोल-साथे नह्बत मिलाये ना तान ।
तव पूरसून्दरीर नूपूरनिक्वन
भग्न प्रासादेर कोने
भरे गेछे झिल्लिस्वने
कान्दाय रे निशार गगन ।
तबू उ तोमार दूत अमलिन
श्रान्ति-क्लान्ति-विहीन,
करि राज्य-भांगागड़ा,
तूच्छ करि जीवनमृत्यूर ऊठापड़ा,
यूग-यूगान्तरे कहितेछे
एक स्वरे
चिरविरहीर वाणी निया —
‘भूलि नाई, भूलि नाई, भूलि नाई, प्रिया !

जा चुके हो तुम, महाराज !
आज
स्वप्न-सी विलुप्त राज्यसत्ता है तुम्हारी अब
बंद हो चुके हैं राज-काज सब
सिंहासन भग्न हुआ
राजदंड पड़ा है अनछुआ
जिसके पदाघात से धरित्री टलमल होती थी कभी
आज उस सेना का नहीं है कहीं चिह्न भी
स्मृति आज उसकी उड़ती है धूल बनकर
दिल्ली की हवा में राजपथ पर
गाते नहीं वन्दीगण गान
नौबत नहीं गूँजती है यमुना के किनारों पर
लहरों से मिलाते हुए तान
अब तुम्हारी नर्तकियों के नूपुर की झंकार
आती नहीं है भग्न महल के झरोखों से
झिल्ली-रव बन नभ में करती हाहाकार
तब भी स्वर तुम्हारे दूत का हुआ न क्षीण
चिर-अमलिन, श्रान्तिहीन, क्लान्तिहीन
तुच्छ करता राजमुकुट-मणियों की चमक-दमक
तुच्छ करता जीवन और मृत्यु की उठापटक
कहता आ रहा यह सन्देश युग-युगान्तर से
चिर-विरही मन का तुम्हारा, मौन स्वर से
‘रचा मैंने प्रेम का प्रतीक यह तुम्हारे लिये
भूला नहीं, भूला नहीं, भूला नहीं तुम्हें, प्रिये!’

मिथ्या कथा ! के बोले ये भूले नाई ?
के बोले रे खोलो नाई
स्मृतिर पिंजरद्वार ?
अतीतेर चिर-अस्त-अन्धकार
आजि उ हृदय तव रेखेछे बाँधिया
विस्मृतिर मुक्ति पथ दिया
आजि उ से होय नि बाहिर ?
समाधि मंदिर एक ठाँई रहे चिरस्थिर,
धरार धूलाय थाकि
मरणेर आवरणे मरणेर यत्ने राखे ढाकि ।
जीवनेरे के राखिते पारे !
आकाशेर प्रति तारा डाकिछे ताहारे ।
तार निमंत्रण लोके लोके
नव-नव पूर्वान्चले आलोके आलोके
स्मर्णेर ग्रंथि टूटे
से ये जाय छूटे
विश्वपथे बंधनविहीन ।
महाराज, कोनो महाराज्य कोनोदिन
पारे नाई तोमारे धरिते
समूद्रस्तनित पृथ्वी, हे विराट्, तोमारे भरिते
नाहि पारे –
ताई ए धरारे
जीवन-उत्सव-शेषे दूई पाये ठेले
मृतपात्रेर मतों जाऊ फेले

मिथ्या है, कौन कहता है कि भूले नहीं
अब भी तुम टिके हो वहीं
कौन कहता है खोल स्मृतियों का पिंजर-द्वार
चीरकर अतीत स्मृतियों का अंध अन्धकार
बाहर तुम आये नहीं विस्मृति के द्वार से
आज तक भी उस अँधेरे कारागार से
वह समाधि-मंदिर तो अचल है अब भी भू पर
मृत्यु को सयत्न स्मृति के आवरण से ढँककर
गतिमय जीवन को पर कौन रोक पाया है
नभ का कोई तारा भी न जिसके हित पराया है
भेजकर पूर्व से आलोक नित्य जिसके लिये
व्योम ने है शून्य में सहस्रों द्वार खोल दिये
बाँधकर रखती कैसे, हो भी चिर-मनोहरा
सागर-परिवेष्टित उसे यह छोटी-सी धरा
इसीलिए तो, दोनों पाँवों से, हे सम्राट् !
ठेल दिया था तुमने वैभव धरा का विराट्
चिर-उन्मुक्त, बैठकर प्रकाश-रथ में
किया प्रस्थान था अनंत व्योम-पथ में

 

तोमार कीर्तिर चेये तूमि ये महत्,
ताई तव जीवनेर रथ
पश्चाते फेलिया जाय कीर्तिरे तोमार
बारम्बार
ताई
चिह्न तव पड़े आछे, तूमि हेथा नाई ।
ये प्रेम पथेर मध्ये पेते छिलो निज सिंहासन
चलिते चालाते नाहि जाने
तार विलासेर संभाषण
पथेर धूलार मतो जड़ाये धरेछे तव पाये —
दियेछो ता धूलिरे फिराये
सेई तव पश्चातेर पदधूलि-‘परे
तव चित्त होते वायूभरे
कखनो सहसा
उड़े पड़ेछिलो बीज जीवनेर माला हते खसा
तूमि चले गेछे दूरे,
सेई बीज अमर अंकूरे
उठेछे अम्बर पाने,
कहिछे गंभीर गाने
यत दूर चाई
नाई नाई से पथिक नाई ।
प्रिया तारे राखीलो ना, राज्य तारे छेड़े दिलो पथ,
रूधिलो ना समूद्र पर्वत ।
आजि तार रथ

अपनी कीर्ति से भी बड़े हो तुम, वह कभी
छू नहीं पाती है तुम्हारी क्षीण छाँह भी
गति से तुम्हारी बारबार
मान-मान जाती हार
रथ को तुम्हारे वह पकड़ नहीं पाती है
काल के पथ पर सदा पीछे छूट जाती है
प्रेम का प्रतीक तो खड़ा है भूमि पर वह आज
पर तुम नहीं हो वहाँ, महाराज !
जिस प्रेम में नहीं हो गति कभी तिल भर
पाकर सिंहासन पड़ा हो एक स्थल पर
कैसे बाँध पाता वह तुम्हारे मुक्त मन को
मुक्त हो गए तुम उसे सौंपकर भुवन को
जीवन में जिसके हाथ कभी हाथ में थामे
लिपटी रही जो पुष्पमाला सदृश ग्रीवा में
सौरभ उसी पुष्पमाला का यह ताजमहल
पूँजीभूत यश प्रेम के प्रकाश का धवल
शोभित कर रहा है अपनी द्युति से धरा का अंचल
उन्नत-शिर खड़ा है फैलाकर बाँहें
पर वे कितना भी चाहें
पकड़ न पातीं उसे जिसने प्रिया-स्मरण-हेतु
रचा था यह प्रणय-सेतु
रोक न पाया जिसे प्रेम का भी यह उपहार
मुक्त हुआ आप करके अपनी प्रिया का श्रृंगार
प्रेयसी ही नहीं, छूटा जिससे साम्राज्य भी
सागर हो कि पर्वत
रोक नहीं पाये कोई जिसका पथ

 

चलिया छे रात्रिर आह्वाने
नक्षत्रेर गाने
प्रभातेर सिंहद्वार-पाने ।
ताई
स्मृति भारे आमि पड़े आछि,
भारमुक्त से एखाने नाई’

रजनी का पाकर आमंत्रण
दूर-दूर नक्षत्रों की ओर
लाँघ धरती का छोर
तारों के संगीत से बेसुध बन
कर गया जो नभ के ज्योति-द्वार में प्रवेश
छोड़कर अपना देश
सौंप कर प्रेम की निशानी यह भुवन को
मुक्त कर गया वह इस बन्धन से भी मन को
और यह प्रतीक उसके प्रेमाकुल हृदय का
मृत्यु पर प्रेम की विजय का
भूमि पर खड़ा है अमर प्रेम की कहानी ले
जग में सोंदर्य की अमिट निशानी ले
कहता हुआ, ‘रहूँगा मैं चिर-दिन
काल की प्रचंडता में अमलिन
विरही हृदय की व्यथा का भार ढोता
मुक्त हुआ प्रेमी पर मैं मुक्त कैसे होता !