ravindranath:Hindi ke darpan me

स्वर्ग सेई विदाय

म्लान होए एलो कंठे मंदारमालिका —
हे महेंद्र, निर्वापित ज्योतिर्मय टिका
मलिन ललाटे, पुरातन बल होलो क्षीण
आजि मोर स्वर्ग होते विदायेर दिन

हे देव, हे देविगण ! वर्ष लक्ष शत
यापन करेछी हर्षे देवतार मतो
देवलोके, आजि शेष विच्छेदेर क्षणे
लेश मात्र अश्रुरेखा स्वर्गेर नयने
देखे जाबो एही आशा छिलो. शोकहीन
हृदिहीन, सूख स्वर्गभूमि, उदासीन
चेये आछे , लक्ष लक्ष वर्ष तार
चक्षेर पलक नहे ; अश्वत्थ शाखार
प्रांत होते खसि गेले जीर्णतम पाता
यत टूकू बाजे तार, तत टूकू व्यथा
स्वर्गे नाही लागे, जबे मोरा शतशत
गृहच्यूते, हृतज्योति नक्षतेर मतो
मूहूर्ते खसिया पड़ि देवलोक होते
धरित्रीर अंतहीन जन्ममृत्युलोके

स्वर्ग से विदा

मंद हुई कंठ की मंदारकुसुममाला है
पुँछ गया टीका भाल पर का ज्योतिवाला है
पुण्यबल है क्षीण और रुकना कठिन है
मित्रो, आज मेरा स्वर्ग से विदा का दिन है

भोग करते स्वर्ग के सुख, मैंने एक लाख वर्ष
रहकर देव तुल्य ही बिताये हैं यहाँ सहर्ष
आशा थी कि मेरे स्वर्ग से विदा के क्षण में
देखूँगा मैं अश्रु देवताओं के नयन में

किन्तु देखता हूँ आत्मलीन वे हृदयहीन
देख रहे ऐसे मुझे देखा हो जैसे कभी न
पीड़ा बिछुड़ने की मेरे सालती उन्हें नहीं
अपने सुख विनोद में लगे थे जहाँ, हैं वहीं

पलकें भी न उनके, दिख ही जाता अश्रु आँख का
मोह यदि होता साथ बीते वर्ष लाख का
जीर्णतम पीपल का पत्र भी झड़े कहीं
दुख होता जितना उसे, उतना भी दुख नहीं
देवों के हृदय में है, उनकी मंडली से छूट
भू पर जा रहा हूँ जब मैं तारे-सा गगन से टूट

से वेदना बाजितो यद्यपि, विरहेर
छायारेखा दितो देखा, तबे स्वर्गेर
चिरज्योति म्लान होते मर्त्येर मतन
कोमल शिशिरवाष्पे ; नंदनकानन
मर्मरिया उठितो निश्वसिया ; मंदाकिनी
कूले-कूले गेये जेतो करूण काहिनी
कलकंठे ; संध्या आसि दिवाअवसाने
निर्जन प्रांतरपारे दिगंतेर पाने
चले जेतो उदासिनी ; निस्तब्ध निशीथ
झिल्लीमन्त्रे शुनाइतो वैराग्यसंगीत

नक्षत्रसभाय माझे माझे सूरपूरे
नृत्यपरा मेनकार कनकनूपूरे
तालभंग होतो. हेलि उर्वशीर स्तने
स्वर्नवीना थेके थेके येनो अन्यमने
अकस्मात झंकारितो कठिन पीड़ने
निदारुण करूण मूर्छना, दितो देखा
देवतार अश्रुहीन चोखे जल्ररेखा
निष्कारणे, पतिपाशे बसि एकासने
सहसा चाहितो शची इंद्रेर नयने
येन खुँजि पिपासार वारि, धरा होते
माझे माझे उच्छसि आसितो वायू स्रोते
धरणीर सूदीर्घ निश्वास — खसि झरि
पड़ितो नंदनवने कूसूममंजरी

मुझ से बिछुड़ने का दुख जो देवों को भी होता आज
मानवों-सा साश्रुदृग विदाई देता सुरसमाज
नंदनकानन भरता उसाँस शोकमय सुर में
मंदाकिनी बहती ले व्यथा की तान नूपुर में

संध्या उदासी से भरी होते ही दिवस का अंत
चली जाती म्लानमुखी शोकमय बना दिगंत
रजनी छिपा लेती अश्रु तारों की सभा के बीच
झिल्ली के स्वरों से देती वन को आँसुओं से सींच

पलकों से सुरेन्द्र के भी आज मुझे जाते देख
गाल पर ढुलक पड़ती मोती की-सी बूँद एक.
इन्द्रसभा बीच जहाँ होता सदा रासरंग
सहसा नृत्यलीन मेनका का होता तालभंग.

मदमत्त उर्वशी गले से लगी वीणा पर
गाती प्रेमगीत जब सुरों में मधुर तानें भर
एकाएक आती उनसे व्यथा भरी ऐसी धुन
फूट ही पड़तीं मन की दबी सिसकियाँ करुण

बैठी पतिपार्श्व में शची भी उठा मुख सहास
ढूँढ़ती जब स्वामी के नयन में मृदु मिलन की प्यास
मुख पर उसके भी, विदा लेता जब मैं माथा टेक
सहसा दिखाई देती वेदना की रेखा एक

आती बीच-बीच में जो भू की साँस दुखभरी
छूकर उसे नंदन की झड़ती कुसुममंजरी

थाको स्वर्ग हास्यमूख ; करो सूधापान
देवगण, स्वर्ग तोमादेरई शूखस्थान —
मोरा परवासी, मर्तभूमि स्वर्ग नहे,
से ये मातृभूमि — ताई तार चक्षे बहे
अश्रुजल धारा, यदि दू दिनेर परे
केह तारे छेड़े जाय दू दंडेर तरे,
यत क्षुद्र, यत क्षीण, यत अभाजन,
सबारे कोमल वक्षे बाँधीबारे चाय —
धूलिमाखा तनूस्पर्शे हृदय जूड़ाय
जननीर, स्वर्गे तव बहूक अमृत
मर्ते थाक् शूखेदू:खे अनंत मिश्रित
प्रेमधारा — अश्रुजले चिरश्याम करि
भूतलेर स्वर्गखंडगुलि

हे अप्सरि !
तोमार नयनज्योति प्रेमवेदनाय
कभू ना होइक म्लान — लईनू विदाय
तुमि कारे करो ना प्रार्थना ; कारो तरे
नाहि शोक, धरातले दीनतम घरे

हे देवो ! सँभालो अपना स्वर्गलोक तुम महान
हास्यमुख रहकर यहाँ सुख से करो सुधापान
मैं तो परदेसी हूँ, कभी यह न देश मेरा है.
कुछ काल को ही यहाँ बस हुआ बसेरा है

मर्त्यभूमि ही तो मेरी मातृभूमि प्यारी है
मुझसे दो दिनों का भी वियोग जिसे भारी है
आँसुओं की लगे झड़ी, पल में हृदय हो अधीर
विकल उसे कर दे यदि मेरे बिछुड़ने की पीर

क्षुद्र हो कि क्षीण हो, कुपात्र या कुवेश हो
पापी तापी सभी का शरणस्थल वही देश हो
धूल झाड़ तन की, गोद में ले, स्नेहअंचल तान
जननी वह पालती सभी को पुत्र के समान

स्वर्ग में अमृत हो, मृत्यु हो न सतत त्रासिनी
मृत्युलोक में है प्रेमगंगा शोकनाशिनी
सुखदुख में डूबते की बाँह लेती थाम जो
संवेदनजल से भू को रखती स्वर्गधाम जो

हे अप्सरि ! तुम्हारा मुख क्यों व्यथा से विवर्ण हो
तुमको क्या ! जो छूटे एक प्रेमी, दूसरा करो
तुम्हें क्या पता कि कैसी होती विरहवेदना
प्रेमी से बिछुड़ने की ! करती तुम न प्रार्थना
किसी के कुशल की कभी, आज ही फिर क्यों हो दुख
मेरे बिछुड़ने का तुम्हें ! तुम तो चिरप्रसन्नमुख

यदि जन्मे प्रेयसी आमार, नदीतीरे
कोनो एक ग्रामप्रान्ते प्रच्छन्न कुटीरे
अश्वत्थ छायाय, से बालिका बक्षे तार
राखिबे संचय करि सूधार भाण्डार
आमार लागिया सयतने. शिशुकाले
नदीकूले शिवमूर्ति गढ़िया सकाले
आमारे माँगिया लबे वर, संध्या होले
ज्वलंत प्रदीपखानि भासाइया जले
शंकित कम्पित वक्षे चाही एकमना
करिबे से आपनार सौभाग्यगणना

एकाकी दाँड़ाय घाटे, एकदा सूक्षणे
आसिबे आमार घरे सन्नतनयने
चंदनचर्चितभाले, रक्तपटाम्बरे
उत्सवेर वाँसरीसंगीते, तार परे
सूदिने दूर्दिने, कल्याणकंकण करे
सीमंतसीमाय मंगलसिंदूरविंदू,
गृहलक्ष्मी दू:खे-शूखे, पूर्णिमार इंदू
संसारेर समूद्रशियरे,

देवगण,
माझे माझे एइ स्वर्ग होइबे स्मरण
दूरस्वप्नसम — जबे कोनो अर्धराते
सहसा हेरिबो जागि निर्मल शय्याते
प्रिया ने, पर, मेरी, भूपर किसी नदीतट के
छोटे-से अजाने गाँव में पुनः पलटके
किसी दीन घर में भी जन्म जो लिया हो कहीं
वह एक पल को भी मुझे भूली होगी नहीं
बाल्यावस्था से ही होगी पूजाअर्चना में लीन
फिर से पाने को मुझे, संचित किये अंतहीन
प्रेमसुधाराशि उर में, पाकर भी देह नयी
होगी स्मृति सँजोये पूर्वजन्म के सुहाग की
प्रात:काल जाकर वह अकेली नदीतीर पर
गढ़कर शिवमूर्ति, बनाने को मुझे अपना वर
प्रार्थना करेगी उससे, संध्या-समय दीप जला
घाट पर पहुँच उसे चपल लहरियों पर बहा
कम्पितवक्ष गणना करेगी उस काल की
द्वार पर जब उसके लिए सजी होगी पालकी
चंदनचर्चितभाल, अरुण पाटाम्बर सजी
सलजमुख, बजती शहनाइयों में द्वार की
और एक दिन शुभ घड़ी में फिर धरेगी पाँव
नव वधू बन वह, मेरे घर में, छोड़ अपना गाँव
सुदिन-कुदिन में, चमकती हुई भाल पर
जगजलनिधि के, पूर्णेंदु की प्रभा लेकर
माँग में सिंदूर, मंगलकंकण से सजे हाथ
फिर वह गृहलक्ष्मी बन रहेगी सदा मेरे साथ
बीच-बीच में स्मृति मुझे स्वर्ग की भी आयेगी
दूरस्थ स्वप्न-सी, जब मेरी नींद टूट जायेगी

पड़ेछे चंद्रेर आलो, निद्रिता प्रेयसी,
लुंठित शिथिल बाहू, पड़िआछे खसि
ग्रंथि शरमेर ; मृदू सौहागचुंबने
सचकिते जागि उठि गाढ़ आलिंगने
लताइबे वक्षे मोर ; दक्षिण अनिल
आनिबे फूलेर गंध, जाग्रत कोकिल
गाहिबे सूदूर शाखे

अयि दीनहीना !
अश्रुआँखि दू:खातुरा जननी मलिना,
काँदिया उठेछे मोर चित्त तोर तरे
अयि मर्तभूमि, आजि बहूदिन परे
येमोनी विदाय दू:खे शुष्क दुई चोखे
अश्रुते पूरिलो, एमोनि ए स्वर्गलोके
अलस कल्पनाप्राय कोथाय मिलालो
छायाच्छवि, तव नीलाकाश, तव आलो
तव जनपूर्ण लोकालय, सिन्धुतीरे
सूदीर्घ बालुकातट, नील गिरिशिरे
शुभ्र हिमरेखा, तरूश्रेणीर माझारे
नि:शब्द अरुणोदय, शून्य नदीपारे
अवनतमूखी संध्या. — विंदू-अश्रुजले
यत प्रतिबिंब येनो दर्पणेर तले
पड़ेछे आसिया

कभी आधी रात में, दिखेगा चाँद का आलोक
निद्रित प्रिया के पास आते बिना रोकटोक

शिथिल पड़ी बाँहें, खुली होगी ग्रंथि लज्जा की
चकित चुम्बन से सहसा जगी, दृष्टि कर बाँकी
गाढ़ आलिंगन से, सिमटकर वक्ष में मेरे
जब वह रहेगी मुझे बाहुलता से घेरे
दक्षिणवायु बहा फूलों की सुरभि लायेगी
जग कर दूर तरु की डालों में कोयल गायेगी

ओ दीनाहीना मर्त्यभूमि ! बहुत दिन के बाद
रो पड़ा है मन मेरा आज तुझे करके याद
देख न पाए थे ज्यों नयन तुझे अश्रुभरे
विदा के समय, त्यों ही स्वर्ग अब दृगों से परे
लुप्त हुए कल्पित स्वप्न का-सा रूप धरता है
मन अब उसका विचार भी न करता है
तेरा नीलाकाश, मृदुप्रकाश, जननिवास तेरा
सैकत सिंधुतीर, गिरिशिखर हिमघनों से घेरा
तरुओं के बीच से उभरता शांत अरुणोदय
नतमुखी संध्या नदी पार होती तम में लय
संचित कुल बिम्ब मानों एक अश्रुकण के
उतर आये हैं तल में मन के दर्पण के

हे जननी पुत्रहारा,
शेष विच्छेदेर दिने जे शोकाश्रुधारा चक्षु होते झरि पड़ि तव मातृस्तने
करेछिलो अभीसिक्त, आजि एतोक्षण
से अश्रु शुकाये गेछे. तबू जानि मने,
यखनी फिरिबो पून तव निकेतने
तखनी दूखानि बाहू धरिबे आमाय
बाजिबे मंगलशंख ; स्नेहेर छायाय
दू:खे-शूखे-भये-भरा प्रेमेर संसारे
तव गेहे, तव पुत्रकन्यार माझारे
आमारे लईबे चिरपरिचितसम —
तार परदिन होते शियरेते मम
सारा क्षण जागि रबे कंपमान प्राणे
शंकित अंतरे ऊर्ध्वे देवतार पाने
मेलिया करूण दृष्टि, चिंतित सदाई
‘याहारे पेयेछि तारे कखनो हाराई’

पुत्र से वियुक्ता हे जननि ! तेरा जिस दिन
पुत्र से हुआ था विच्छेद, जो मुख से मलिन
अश्रुधारा कर रही थी उरोजों का अभिषेक
शुष्क भी हो आज, है भरोसा, दूँगा माथा टेक
लौटकर जब तेरे चरणों पर, भूमि से उठा
बाँहों में भर लेगी मुझे प्रेम दे तू पहले-सा

मंगल शंखनाद में फिरूँगा पुन: अपने घर
स्नेहछायामयी सुखदुख से भरी पृथ्वी पर
जननी ! असंख्य अपने पुत्रपुत्रियों के बीच
लेगी तू मुझे भी तब निज मोदमंडली में खींच

उसके बाद तो फिर रखकर सिर पर निज कोमल कर
जागती रहेगी सदा चिंता-आशंका से भर
कम्पितप्राण, ममताकुल फिर-फिर नभ की ओर देख
विनय करेगी देवताओं से यही बस एक

बहुत दिनों बाद खोया पुत्र मिला मुझे, नाथ !
पाया जिसे उससे फिर न छूटे कभी मेरा साथ