roop ki dhoop

चली आओ

बिछलती चाँदनी, सिहरन हवा में, रात आधी है
चली आओ जहाँ तक प्राण का आलोक मिलता है
जहाँ तक कामना की तारिकायें झिलमिलातीं हैं
सुनहली, पारदर्शी चेतना का लोक मिलता है

चली आओ तुम्हारे प्राण प्राणों से सजूँगा मैं
उषा की अरुणिमा ले कर कुँवारी माँग भर दूँगा
चरण पर ला निचोडूँगा नखत-रवि-शशि भरा अंबर
तलातल भेद छवि की उर्वशी को मूर्त कर लूँगा

चली आओ कि मन में सैकड़ों भूचाल वंदी हैं
अतल की आँधिया चीत्कार करतीं ज्यों निशाओं में
पछाड़ें खा रहा ज्यों सिंधु पर्वत की शिलाओं पर
कि जैसे बँध गयी हों बिजलियाँ सौ-सौ भुजाओं में

1962